एक लघु कहानी / अफ़लातून

हालात ने उसे पेशेवर भिखारी बना दिया होगा । उमर करीब पाँच- छ: साल। पेशे को अपनाने में दु:ख या संकोच होने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी उसकी कच्ची उमर ने । माँगने के कष्ट की शायद कल्पना ही न रही हो उसे और माँग कर न पाना भी उसके लिए उतना ही सामान्य था जितना माँग कर पाना ।
उस दिन सरदारजी की जलेबी की दुकान के करीब वह पहुँचा । सरदारजी पुण्य पाने की प्रेरणा से किसी माँगने वाले को अक्सर खाली नहीं जाने देते थे । उसे कपड़े न पहनने का कष्ट नहीं था परन्तु खुद के नंगे होने का आभास अवश्य ही था क्योंकि उसकी खड़ी झण्डी ग्राहकों की मुसकान का कारण बनी हुई थी । ’सिर्फ़ आकार के कारण ही आ-कार हटा कर ’झण्डी’ कहा जा रहा है । वरना पुरुष दर्प तो हमेशा एक साम्राज्यवादी तेवर के साथ सोचता है , ’ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा , झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ ! बहरहाल , सरदारजी ने गल्ले से सिक्का निकाला। उनकी नजर उठी परन्तु लड़के की ’झण्डी” पर जा टिकी। उनके चेहरे पर गुस्से की शिकन खिंच गयी । उसने एक बार सरदारजी के गुस्से को देखा , फिर ग्राहकों की मुस्कान को और फिर खुद को – जितना आईने के बगैर देखा जा सकता है। और वह भी मुस्कुरा दिया । इस पर उसे कुछ और जोर से डाँट पड़ी और उसकी झण्डी लटक गई । ग्राहक अब हँस पड़े और लड़का भी हँस कर आगे बढ़ चला।
भीख देने से सरदारजी खुद को इज्जतदार समझते थे मगर उस दिन मानो उनकी तौहीन हो रही थी । लड़का अभी भी हँस रहा था और मेरा दोस्त भी । दोस्त ने मेरे हाथ से दोना ले लिया जिसमें दो जलेबियाँ बची थी और उसे दे दिया। सरदारजी से उस दिन भीख न पाने में भी उसे मजा आया ।

11 टिप्पणियां

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11 responses to “एक लघु कहानी / अफ़लातून

  1. इसमें अश्लीलता जैसी कोई स्थिति तो नहीं दिखती, लेकिन कुल मिला कर यह एक मनोरंजक वाक़ये की रपट भर बन कर रह गई है. क्या ही बेहतर होता, अगर इस कहानी में उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को उभारा गया होता, जिन्होंने उसे इसके लिए विवश किया.

  2. यह डंडी या झंडी का नहीं। एक भिखारी बच्चे के भय और शेष समाज और उसके बीच घटे (दया और दुत्कार से इतर) एक वास्तविक संवाद का रस लेकर (जलेबी का नहीं) खींचा खाका है।

    सारा भारत जागृत योनि बमय उत्थान को प्राप्त लिंग पूजता है। कैसी अश्लीलता।

  3. Mujhe isme kuch bhi ashleel nazar nahin aata ek or jahan ye sach hai wahin doosri or kuch pathos bhi hai isme jabki ek ashleel me iski sambhavnayen badi kum hoti hain.

    Shaleen

  4. इष्ट देव जी की बातों से एक हद तक सहमति बनती है कि इसमें सामाजिक,आर्थिक स्थितियों को बेहतर ढंग से उभारा नहीं गया है। लेकिन रचना के स्तर पर दूसरी संभावना ये भी बनती है कि हम जिस बात को अभी इतनी स्पष्टता से समझ पा रहे हैं,प्रयासगत तरीके से ये सब डालने में शायद वो बिखरकर रह जाता। अफलातून ने जो कुछ भी हमारे सामने रखा है वो विचार होने के पहले एक रचना है। अगर इसमें विचार है तो वो स्वाभाविक ही हो तो बेहतर लगेगें। लेकिन प्रयासगत तरीके से अगर इसमें डाले जाएं तो चिप्पी लगेगी। कई रचनाकार ऐसे करते दिख जाते हैं। हां ये जरुर है कि अफलातून अगर इस तरह की लघु कहानियां लगातार लिखने की इच्छा रखते हैं तो इष्ट देव की बात उनके जेहन में अपने आप चली गयी होगी। लेकिन फिलहाल जो कुछ भी लिखा है,वो दमदार है और स्पष्ट है। संभव है कि पुनर्पाठ के जरिए ये कमी भी पूरी होती जान पड़े।
    शालीनजी ने इथोस शब्द का प्रयोग करके मुझे एमए की याद दिला दी। ये शब्द पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ने के दौरान बहुत इस्तेमाल किया करता था। अरस्तू के विरेचन सिद्धांत की एक कड़ी यहां से भी जुड़ती है।..

  5. यह लघु कथा एक सच्चा चित्र है ऐसे समाज का जिसमें अभी तक अनिवार्यताओं की भी किल्लत है . पाठक इसे अपनी-अपनी तरह से ’इंटरप्रेट’ करने के लिये स्वतंत्र हैं .

    पर यह अश्लील नहीं हो सकती . शर्मिंदगी का बाइस हो तो हो .

  6. श्लील-अश्लील से परे इस लघु कथा में आम संदर्भो के अनुरूप ही सामजिक चित्रण समझ आया | शायद इष्ट देव जी उससे अधिक पारंगत होने की उम्मीद लगाए रहे होंगे ?
    बकिया कथा और लघुकथा और उसकी अपील पर हमारी औकात नहीं कि टीप सकें!

  7. इस कहानी को पढ़ कर ऐसा लगा की ….हम जिस समाज मैं रह रहे है … उस मैं बदलाव लाना बहुत जरूरी है …….

  8. पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव

  9. शायद आप बुरा मानें लेकिन मैं इस कहानी को दो बार पढ़कर भी समझने में बहुत हद तक असमर्थ रहा।

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