साम्प्रदायिकता है – अपनी पूजा-पाठ-उपासना-विधियों , खान-पान,रहन-सहन के तौर-तरीकों , जाति-नस्ल आदि की भिन्नताओं को ही धर्म का आधार मानना तथा अपनी मान्यता वाले धर्म को सर्वश्रेष्ठ और दूसरी मान्यता वाले धर्मों को निकृष्ट समझना , उनके प्रति नफरत , द्वेष-भाव पालना और फैलाना ।अपने लिए श्रेष्ठता और दूसरों के प्रति निकृष्टता का यही भाव हमारे सामाजिक विघटन का मूल कारण है , क्योंकि इससे आपसी सामाजिक रिश्ते टूटते हैं । परस्पर शंका-अविश्वास के बढ़ने से सामाजिक विभाजन इतना अधिक हो जाता है कि अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की बस्तियाँ एक दूसरे से अलग-थलग होने लगती हैं । यह अलगाव कई आर्थिक, राजनीतिक , सांस्कृतिक कारणों से जुड़कर देश के टूटन का कारण बनता है ।
अपने लिए श्रेष्ठता और दूसरों के प्रति निकृष्टता का यही भाव हमारे सामाजिक विघटन का मूल कारण है , क्योंकि इससे आपसी सामाजिक रिश्ते टूटते हैं । परस्पर शंका-अविश्वास के बढ़ने से सामाजिक विभाजन इतना अधिक हो जाता है कि अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की बस्तियाँ एक दूसरे से अलग-थलग होने लगती हैं । यह अलगाव कई आर्थिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक कारणों से जुड़कर देश के टूटन का कारण बनता है ।
हमारा समाज , हमारा देश एक बार इस प्रकार की अलगाववादी-प्रवृत्ति का शिकार होकर विघ्हतन के अत्यन्त दुखान्त दौर से गुजर चुका है । क्या हम उसे फिर फिर दोहराया जाना देखना-भोगना चाहते हैं ? यदि नहीं तो फिर धर्म के आधार पर राज्य और राष्ट्र की बात जिस किसी भी धर्म वाले के द्वारा क्यों न कही जाती हो , हम उसका डटकर विरोध क्यों नहीं करते ? सोचिये , क्या धर्म के नाम पर राष्ट्र की बात कहने या उसका समर्थन करने से अन्तत: हम उस मान्यता के ही पक्षधर नहीं बनते , जिसमें धर्म को अलग राष्ट्र का आधार माना गया था और जिस मान्यता के कारण भारत विभाजित हुआ था ?
जब धर्म के नाम पर राष्ट्र बनेगा , तो नस्ल , जाति ,भाषा आदि के आधार पर राष्ट्र बनने से कौन रोक सकेगा ? कैसे रोक सकेगा ? तो फिर , इतनी विविधता वाले वर्तमान भारतीय राष्ट्र की तस्वीर क्या होगी ? धर्म पर आधारित राज्य-राष्ट्र की बात करने वाले या उनका समर्थन करने वाले कभी इस पर गौर करेंगे ? धर्माधारित राज्य-राष्ट्र की मांग करना भारतीय समाज एवं राष्ट्र के विघटन का आवाहन है । और वास्तविकता तो यह है कि धर्माधारित राष्ट्र राज्य-राष्ट्र की माँग के पीछे अनेक आर्थिक , राजनीतिक निहित हित साधने के लक्ष्य छिपे होते हैं ।
क्यों बढ़ रही है यह साम्प्रदायिकता ?
धर्मों के उन्माद फैलाकर सत्ता हासिल करने की हर कोशिश साम्प्रदायिकता को बढ़ाती है , चाहे वह कोशिश किसी भी व्यक्ति , समूह या दल के द्वारा क्यों न होती हो । थोक के भाव वोट हासिल करने के लिए धर्म-गुरुओं और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल लगभग सभी दल कर रहे हैं । इसमें धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले राजनीतिक दल भी शामिल हैं । इन दलों ने चुनाव में साम्प्रदायिक दलों के साथ समझौते भी किए हैं और सत्ता हासिल करने के लिए समझौते भी किए हैं , सत्ता में इनके साथ साझीदारी की है । यदि धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले दलों ने मौकापरस्ती की यह राजनीति नहीं की होती तो धर्म-सम्प्रदायाधारित राजनीति करने वालों को इतना बढ़ावा हर्गिज़ नहीं मिलता । जब धर्म-सम्प्रदाय की रजनीति होगी तो साफ़ है कि छद्म से अधिक खुली साम्प्रदायिकता ताकतवर बनेगी।
पूँजीवादी शोषणकारी वर्तमान व्यवस्था के पोषक और पोषित – वे सभी लोग साम्प्रदायिकता बढ़ाने में सक्रिय साझीदार हैं , जो व्यवस्था बदलने और समता एवं शोषणमुक्त समाज-रचना की लड़ाइयों को धार्मिक-साम्प्रदायिकता उन्माद उभाड़कर दबाना और पीछे धकेलना चाहते हैं । हमें याद रखना चाहिए कि धर्म सम्प्रदाय की राजनीति के अगुवा चाहे वे हिन्दू हों , मुसलमान हों , सिख हों , इसाई हों या अन्य किसी धर्म को मानने वाले , आम तौर पर वही लोग हैं , जो वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से अपना निहित स्वार्थ साध रहे हैं – पूँजीपति , पुराने राजे – महाराजे , नवाबजादे , नौकरशाह और नये- नये सत्ताधीश , सत्ता के दलाल ! और समाज का प्रबुद्ध वर्ग , जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि साम्प्रदायिकता जैसी समाज को तोड़ने वाली दुष्प्रवृत्तियों का विरोध करेगा , आज की उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होकर मूकदर्शक बना हुआ है ,अपने दायित्वों का निर्वाह करना भूल गया है !
और , हम-आप भी , जो इनमें से नहीं हैं , धार्मिक-उन्माद में पड़कर यह भूल जाते हैं कि भविष्य का निर्माण इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से नहीं होता । अगर इतिहास में हुए रक्तरंजित सत्ता , धर्म , जाति , नस्ल , भाषा आदि के संघर्षों का बदला लेने की हमारी प्रवृत्ति बढ़ी , तो एक के बाद एक इतिहास की पर्तें उखड़ेंगी और सैंकड़ों नहीं हजारों सालों के संघर्षों , जय-पराजयों का बदला लेनेवाला उन्माद उभड़ सकता है ।फिर तो , कौन सा धर्म-समूह है जो साबुत बचेगा ? क्या हिन्दू-समाज के टुकड़े-टुकड़े नहीं होंगे ? क्या इस्लाम के मानने वाले एक पंथ के लोग दूसरे पंथ बदला नहीं लेंगे ? दुनिया के हर धर्म में पंथभेद हैं और उनमें संघर्ष हुए हैं । तो बदला लेने की प्रवृत्ति मानव-समाज को कहाँ ले जायेगी ? क्या इतिहास से हम सबक नहीं सीखेंगे ? क्या क्षमा , दया , करुणा , प्यार-मुहब्बत , सहिष्णुता ,सहयोग आदि मानवीय गुणों का वर्द्धन करने के बदले प्रतिशोध , प्रतिहिंसा , क्रूरता , नफ़रत , असहिष्णुता , प्रतिद्वन्द्विता को बढ़ाकर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को संभालना और बढ़ाना चाहते हैं ?
वक्त आ गया है कि हम भारतीय समाज में बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों को गहराई से समझें और साम्प्रदायिकता के फैलते जहर को रोकें । [ जारी ]
साम्प्रदायिकता है – अपनी पूजा-पाठ-उपासना-विधियों , खान-पान,रहन-सहन के तौर-तरीकों , जाति-नस्ल आदि की भिन्नताओं को ही धर्म का आधार मानना तथा अपनी मान्यता वाले धर्म को सर्वश्रेष्ठ और दूसरी मान्यता वाले धर्मों को निकृष्ट समझना , उनके प्रति नफरत , द्वेष-भाव पालना और फैलाना ।
अपने लिए श्रेष्ठता और दूसरों के प्रति निकृष्टता का यही भाव हमारे सामाजिक विघटन का मूल कारण है , क्योंकि इससे आपसी सामाजिक रिश्ते टूटते हैं । परस्पर शंका-अविश्वास के बढ़ने से सामाजिक विभाजन इतना अधिक हो जाता है कि अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की बस्तियाँ एक दूसरे से अलग-थलग होने लगती हैं । यह अलगाव कई आर्थिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक कारणों से जुड़कर देश के टूटन का कारण बनता है ।
हमारा समाज , हमारा देश एक बार इस प्रकार की अलगाववादी-प्रवृत्ति का शिकार होकर विघ्हतन के अत्यन्त दुखान्त दौर से गुजर चुका है । क्या हम उसे फिर फिर दोहराया जाना देखना-भोगना चाहते हैं ? यदि नहीं तो फिर धर्म के आधार पर राज्य और राष्ट्र की बात जिस किसी भी धर्म वाले के द्वारा क्यों न कही जाती हो , हम उसका डटकर विरोध क्यों नहीं करते ? सोचिये , क्या धर्म के नाम पर राष्ट्र की बात कहने या उसका समर्थन करने से अन्तत: हम उस मान्यता के ही पक्षधर नहीं बनते , जिसमें धर्म को अलग राष्ट्र का आधार माना गया था और जिस मान्यता के कारण भारत विभाजित हुआ था ?
जब धर्म के नाम पर राष्ट्र बनेगा , तो नस्ल , जाति ,भाषा आदि के आधार पर राष्ट्र बनने से कौन रोक सकेगा ? कैसे रोक सकेगा ? तो फिर , इतनी विविधता वाले वर्तमान भारतीय राष्ट्र की तस्वीर क्या होगी ? धर्म पर आधारित राज्य-राष्ट्र की बात करने वाले या उनका समर्थन करने वाले कभी इस पर गौर करेंगे ? धर्माधारित राज्य-राष्ट्र की मांग करना भारतीय समाज एवं राष्ट्र के विघटन का आवाहन है । और वास्तविकता तो यह है कि धर्माधारित राष्ट्र राज्य-राष्ट्र की माँग के पीछे अनेक आर्थिक , राजनीतिक निहित हित साधने के लक्ष्य छिपे होते हैं ।[जारी]
‘हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के , इस मुल्क़ को रखना मेरे बच्चों को संभाल कर’ ऊपर का विडियो १९५७ में बनी पाकिस्तानी फिल्म बेदारी का है। नीचे का गीत आप सब ने १५ अगस्त , २६ जनवरी , २ अक्टूबर अथवा ३० जनवरी को विविध भारती पर सुना होगा। बेदारी में इसके अलावा जागृति से प्रेरित अन्य गीत भी हैं । दोनों फिल्मों की कहानी भी समान थी ।
बहरहाल , यूट्यूब पर पाकिस्तानी और भारतीय देश-प्रेम सैंकड़ों टिप्पणियों की शक्ल में देखा जा सकता है । मजेदार बात यह है कि दोनों ओर से नथूने फुलाने वाले ही नहीं कुछ समझदार लोग भी मिल जाते हैं । जैसे एक भारतीय पाठक कहता है ,’२१वीं सदी में ऐसे गीतों में उन १० फ़ीसदी लोगों के तबके का भी हवाला होना चाहिए जो भारत और पाकिस्तान दोनों पर शासन करता है ।’ यही पाठक कहता है ,’हम जागृति फिल्म के कवि प्रदीप के इन्हीं गीतों को सुनकर बड़े हुए हैं लेकिन सैटेलाइट टेलीविजन चैनल आने के बाद इन्हें सुनने के लिए यूट्यूब के सहारे हैं ।’ दोनों तरफ़ के गीतों को सुनने के बाद ,’चलिए हम सगे भाइयों की तरह रहें’ और ‘काश भारत-पाक विभाजन न हुआ होता’ जैसे उद्गार भी व्यक्त हुए। लाजमी तौर पर बहस में बाँग्लादेश और काश्मीर का हवाला भी आता है । बाँग्लादेश की मुक्ति संग्राम का हवाला देते वक्त यह भी याद दिला दिया जाता है कि मुस्लिम लीग का गठन ढाका में हुआ था । एक साँस में भारत और पाकिस्तान दोनों का जिन्दाबाद लगाने वाले भी मिलते हैं । पाकिस्तान में इस गीत पर एक नया विडियो बना है जिसमें तिरंगा जलाते हुए दिखाया गया है , यह समझदार पाकिस्तानियों के भी गले नहीं उतरता।’परस्पर घृणा रोको और हूनर की इज़्ज़त करो’ कहने वाले भी हैं और इन गीतों में पाकिस्तानी गीत बाद में आए यह साबित हो जाने के बाद यह बताना न चूकने वाले भी हैं कि ‘पहले tum hi ho mahboob mere masood rana खोजें (१९६६ का पाकिस्तानी गीत आ जाएगा),फिर tum hi ho mehboob mere shahrukh khan खोजने पर १९९० भारतीय गीत आ जाएगा ।
धर्माधारित राष्ट्र (हिन्दू अथवा इस्लामिक) अथवा दो धर्म- दो राष्ट्र का परिणाम सांस्कृतिक औपनिवेशिक शोषण से मुक्त हुआ बाँग्लादेश है ।
बहरहाल जागृति की कहानी सुन लें । १९५४ में सत्येन बोस निर्देशित जागृति में पण्डित कवि प्रदीप के गीत हैं और हेमन्त कुमार का संगीत है। मुख्य अभिनेता अभि भट्टाचार्य , राजकुमार गुप्ता , रतन कुमार , प्रणति घोष , बिपिन गुप्ता , मुमताज़ बेग़म हैं। गीत मोहम्मद रफ़ी , आशा भोंसले और कवि प्रदीप ने गाये हैं । कहानी एक बरबाद ,अभद्र , रईसज़ादे अजय (राजकुमार) के चारों ओर घूमती है । उसे अनुशासित करने की उम्मीद में उसके दादा उसे एक हॉस्टल वाले स्कूल में भेजते हैं । अजय ने मानो संकल्प ले रखा है न सुधरने का। वह नए सुपरिन्टेंडेन्ट शेखर (अभि भट्टाचार्य) और स्कूल प्रशासन से उलझता रहता है। अजय शक्ति नामक विकलांग छात्र (रतन कुमार) से दोस्ती करता है लेकिन उसके कहने का भी कोई असर नहीं होता। शेखर बच्चों में अच्छे मूल्य अंकुरित करने के लिए कई अपारम्परिक प्रयोग करता है। अजय हॉस्टल से भागने की कोशिश करता है , शक्ति की उसे रोकने के चक्कर में एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। इसका असर शक्ति पर होता है ।वह खेल और पढ़ाई दोनों में अव्वल हो जाता है। शेखर अपना सुधार अभियान फैलाने अन्यत्र कूच कर जाते हैं ।
यह गौरतलब है कि जागृति भी उसी निर्देशक की १९४९ में बनी बाँग्ला फिल्म से प्रेरित थी । राष्ट्रीय आन्दोलन का आभा मण्डल तब तक विलुप्त नहीं हुआ था। किशोर अपराध तथा तालीम के अपारम्परिक तरीकों को निर्देशक ने बिना बड़े सितारों के सुन्दर तरीके से दिखाया है । रतन कुमार एक बाल कलाकार के रूप में बिमल रॉय की दो बीघा जमीन(१९५३) तथा राज कपूर की बूट पॉलिश (१९५४) में पहले ही स्थापित हो चुका था । सत्येन बोस ने जागृति के अलावा बन्दिश , मासूम और मेरे लाल नामक बच्चों की फिल्में बनायीं । उनकी सर्वाधिक चर्चित फिल्म गांगुली ब्रदर्स और मधुबाला अभीनित चलती का नाम गाड़ी रही ।
बेदारी ( १९५७ ) के अभिनेताओं के नाम रतन कुमार , रागिणी , सन्तोष , मीना और अनुराधा है । लखनऊ के वरिष्ट चिट्ठेकार डॉ. प्रभात टण्डन ने इन नामों (सभी हिन्दू नाम) को देखकर उन्हें भारतीय मान लिया । फिल्म के प्रमुक गायक सलीम रज़ा ईसाई थे और सन्तोष १९२८ में लाहोर में पैदा हुए थे , मूल नाम सैयाद मूसा रज़ा था। सन्तोष पाकिस्तानी फिल्मों के सुधीर के बाद सुपर स्टार थे। उनकी पहली फिल्म भारत में बनी अहिन्सा थी । रतन कुमार भारत में बूट पॉलिश ,दो बीघा जमीन के अलावा बैजू बावरा ( बालक बैजू ) , बहुत दिन हुए और फुटपाथ में बाल कलाकार के रूप में आ चुका था । वह १९५६ में पाकिस्तान चला गया । जागृति की कर्बन कॉपी बेदारी में तो वह पुरानी भूमिका में था । पाकिस्तान में भी बाल भूमिका में वह वाह रे जमाने , मासूम और दो उस्ताद में आया । नायक के तौर पर पाकिस्तान में वह नागिन , नीलो , अलादीन का बेटा और नीलोफ़र ,ताज और तलवार ,शायरे इस्लाम, गज़नी बिन अब्बास , हुस्नो इश्क , बारात , समीरा , छोटी अम्मी , आसरा में आया । पाकिस्तान से भी कलाकार भारत आ कर हाथ आजमा चुके हैं और पाकिस्तानी फिल्मों में हिन्दू अभिनेता – अभिनेत्रियाँ क्रिकेट से ज्यादा तादाद में रहें हैं । आजकल भारत में लोकप्रिय हुए सुफ़ीनुमा गीतों के गायक और गायन बैण्ड से पहले की यह बात है ।
इन्टरनेट के इस सूचनावर्धक पहलू ने मुझमें पाकिस्तान की बारे में और जानने की इच्छा जगाई है ।
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'विविध भारती के संगीत- सरिता कार्यक्रम में अनिल विश्वास से हुई तुशार भाटिया की बात-चीत का पुनर्प्रसारण हो रहा है। आज जो बात हुई वह मुख्यतः फैज अहमद फैज पर थी। आज फैज साहब का जन्म दिन भी है। मैं सुन पाया,गदगद हूं। याहू के एक 'समूह'(विविध भारती) में पूरी बातचीत रोमन लिपि में दर्ज है। AB: Anil Biswas MK: Meena Kapoor TB: Tushar Bhatia TB: shrotaa […]
भगत सिंह की नौजवान सभा के ६ में से २ दो नियम निम्नलिखित थेः
१. फिरकापरस्त समूहों और फिरकावाराना विचार रखने वाले संग… twitter.com/i/web/status/1…1 hour ago
RT @ladenge: इजराइल के 28% लोग सड़क पर। भारत की जनसंख्या में यह 40 करोड़। क्यों? पहले वहां यहूदी वि मुस्लिम का मुद्दा बनाया। अब वो संविधान… 1 hour ago