पिछले भाग से आगे :
१९ नवम्बर से एशियाई खेलों के नाम पर जो अश्लीलता होने जा रही है , उसमें कहीं भी वह खेल नहीं होगा जिसकी हमने ऊपर चर्चा की । इनमें तमगे बटेंगे , राष्ट्रगानों की धुनें बजेंगी और हारने का मातम व जीतने की बेहयाई होगी। ऐसे में एशियाई खेलों को हम खेल क्यों मानें ? १९३६ में हिटलर ने बरलिन में ओलम्पिक खेलों का जो आयोजन करना चाहा था , वही कमोबेश इनमें किया जा रहा है । ओलिम्पिक के आयोजन में नाजियों ने पैसे की कोई परवाह नहीं की । न्यूरमबर्ग रैलियों के लगातार आयोजन से उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया था , उसे बहुत कारगर ढंग से ओलिम्पिक खेलों के आयोजन में लगाया | नाजियों की दृष्टि में ओलिम्पिक के आयोजन में खरच किया गया एक भी पैसा बेकार नहीं गया क्योंकि इससे उन्होंने दुनिया-भर में अपना जो धुंआधार प्रचार किया , वे किसी अन्य तरीके से नहीं कर सकते थे । नाजियों के यहूदी विद्वेष के कारण बरलिन में ओलिम्पिक करने के बारे में जो आपत्ति थी , उसे दूर करने के लिए हिटलर ने यह भ्रम भी फैलाया कि जरमनी की टीम में यहूदी लिये जायेंगे । ओलिम्पिक खेलों के आयोजन के पीछे हिटलर का उद्देश्य देशों के बीच प्रेम और मैत्री बढ़ाना नहीं था । उसका उद्देश्य विशुद्ध रूप से राजनीतिक था । अन्तरराष्ट्रीय खेलों का आयोजन होता ही है सरकारों की छवि निखारने के लिए । एशियाई खेलों का भी उद्देश्य यही है । दुनिया की ऋणदात्री संस्थाओं को भी दिखाना है कि भारत ऐसा देश है जिसे ऋण दिया जा सकता है ।
जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय खेलों से भाईचारा और मैत्री बढ़ाने की बात है , वह एक झूठी किंवदन्ती है । थोड़े ही दिनों में भारत क्रिकेट मैच होंगे , देखिएगा हम हिन्दुस्तानियों में पाकिस्तान के प्रति कैसा प्रेम उमड़ता है ! प्रेम बढ़ता है एक देश के कलाकारों , लेखकों के दूसरे देश जाने से और यहाँ के कलाकारों लेखकों के साथ आदान – प्रदान करने से , क्योंकि कलाकारों और लेखकों के बीच मैच नहीं होते । पिछली बार पाकिस्तानी टीम हमारे यहाँ आई थी तो हमने उसको हरा कर भेजा , इस बार हम जायेंगे तो वे हमे हराकर भेजेंगे । अन्तरराष्ट्रीय खेलों का सभ्य रिवाज यह है कि मेजबान राष्ट्र मेहमान राष्ट्र को चोरी , बदमाशी और समर्थकों के जोर से हराकर विदा करता है । एशियाई – खेलों में भारतीय फुटबाल टीम को यही आशा है कि दर्शकों के जोर के दम पर वह शायद एकदम फिसड्डी साबित न हो ( यह प्रशिक्षक का मत है ) । समाजवादी लेखक जार्ज आरवेल ने अन्तरराष्ट्रीय खेलों के चरित्र के बारे में लिखा था :
” अगर कोई ठोस उदाहरणों से , जैसे १९३६ के ओलिम्पिक भी इस बात को न जान पाए कि अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगितायें अन्तरराष्ट्रीय घृणा (के अतिरेक व उन्माद ) को जन्म देती हैं तो वह मोटी – मोटी बातों से ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि – महत्वपूर्ण खेलकूद (सिरियस स्पोर्ट्स) का समानता और न्याय की भावनाओं से कोई वास्ता नहीं है । ये तो घृणा , ईर्ष्या , घमंड , नियमों की अवज्ञा करने और हिंसा को देखकर परपीड़क आनन्द प्राप्त करने से अभिन्न रूप से जुड़ें हुए हैं । ये ऐसे युद्ध हैं जिनमें गोलीबारी के सिवाय सब-कुछ (सारी बुराइयाँ युद्ध की ) होता है । “
आरवेल ने चालीस साल पहले जब यह लिखा तब उनके दिमाग में १९३६ के ओलिम्पिक खेल और कुछ अन्तरराष्ट्रीय फुटबाल मैच थे । तबसे खेलों में जिन बुराइयों की आरवेल ने चर्चा की है , वे कई गुना बढ़ गयी हैं । हिंसा तो खेल-कूद की अनिवार्य अंग बनती जा रही है । खिलाड़ियों से यह अपेक्षा की जाती है कि उनमें ’ किलर इन्स्टिंक्ट ’ होगी यानी जीतने के लिए प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी को मार डालने तक की प्रवृत्ति । दर्शकों को तबतक पैसे वसूल होते नहीं दिखते जबतक उनको यह नहीं लगता कि खिलाड़ी उनका मनोरंजन करने के लिए ’पर और मार नहीं ’ रहे हैं । किसी खिलाड़ी के असफल रहने पर उसे धिक्कारा जाता है कि उसमें ’ किलर इन्स्टिंक्ट ’ ( ’हत्या करने की मूल प्रवृत्ति ’ ) नहीं है । ऐसे में खिलाड़ी अपने में ’किलर इन्स्टिंक्ट’ लाते हैं और जो बेचारे ला नहीं पाते वे दिखाने के लिए हिंसा का स्वांग करते हैं । इस तरह हिंसा बढ़ती ही जाती है । अब किसी भी तरह जीतना उद्देश्य बनता जाए तो यह होगा ही । खेलों से हिंसा का जो उन्माद बनता है वह नया है । जैसे नशेवान और ज्यादा नशा चाहता है , वैसे ही दर्शक खेल के मैदान में ज्यादा-से-ज्यादा हिंसा चाहता है ताकि उसका उन्माद बढ़े ।
( जारी )
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