[ ‘अस्पृश्यता जैसे प्रश्न पर यदि मेरी इतनी गम्भीर ग़लतफ़हमी हुई हो तो मैं गांधीजी के विचारों को समझाने के काबिल नहीं। मैंने ही बापू को इतनी पीड़ा पहुँचायी तो दूसरों को रोकने का मुझे क्या अधिकार ? ‘ ]
‘ गांधी- सेवा- संघ ‘ की बैठकें हर साल अलग – अलग प्रान्तों में होती थीं। ऐसी ही एक बैठक में बापू के हाथ से मेरा यज्ञोपवीत – ग्रहण समारोह और मेरी बूआ का विवाह सम्पन्न हुआ था। सन १९३८ में गांधी-सेवा-संघ की बैठक उड़ीसा के पुरी जिले केडेलांग गाँव में हुई थी। आम तौर पर काका के साथ ऐसी सभाओं में मैं जाता था। लेकिन जगन्नाथपुरी के पास ही डेलांग होने के कारण मेरि माँ वहाँ आयी थी।
सम्मेलन के सभापति किशोरलाल मशरूवाला थे। उन्होंने अहिंसा-सम्बन्धी कुछ दिलचस्प सवाल कार्यकर्ताओं के सामने उपस्थित किए थे। बापू सम्मेलन में तो बोले हि थे , उसके उपरान्त रोज प्रार्थना के बाद उनको जाहिर सभा में जाना होता था। फिर दिनभर में एक – दो बार दर्शन के लिए इकट्ठा हुई हजारों की भीड़ के सामने भी बापू को हाजिर होना पड़ता था। वह दृश्य अद्भुत था। रोज सुबह – शाम एक मैदान में हजारों लोगों की भीड़ जमा होती थी। इतनी संख्या लोगों के होते हुए भी जरा भी अशान्ति नहीं रहती थी। कभी – कभी दर्शनार्थी घण्टों तक बैठे रहते। बापू उनके बीच मंच पर जाकर केवल प्रणाम करके चले आते थे। बस , इतने-से दर्शन से अपार तृप्ति का अनुभव करती हुई ग्रामीण जनता रात होने से पहले दूर के अपने – अपने गाँवों में पहुँचने के लिए जल्दी – जल्दी निकल पड़ती।
प्रदर्शनी के उदघाटन के सम्य हजारोम की संख्या में भीड़ जमा हो गयी थी। इस भीड़ के सामने भाषण करते हुए बापूने पुरी के मन्दिर का जिक्र किया और कहा , ‘ जब तक यह मन्दिर हरिजनोम के लिए खुला नहीं किया जाता , तब तक जगन्नाथ सही माने में जगत का नाथ नहीं कहा जाएगा , बल्कि मन्दिर की छा में पेट भरने वाले पण्डों का नाथ कहा जाएगा। ‘ हरिजन – यात्रा के सम्य बापू का प्रवेश पुरी के मन्दिर में नहीं हो सका था , उल्टे उन पर हमला किया गया था।
कस्तूरबा ने इच्छा व्यक्त की कि डेलांग आये ही हैं , तो पुरी चला जाए। मेरी माँ और बेला मौसी तो इसीलिए आयीं थीं। इन सबको पुरी भेजने की व्यवस्था करने को बापू ने काका से कह दिया। काका को पुरी जाने में विशेश दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन बापू ने दो – तीन बार कहा तो काका ने व्यवस्था कर दी। पुरी जाने वालोम में मैं भी एक था। हमारे साथ मणिलालकाका भी जायें , ऐसा तय हुआ था। लेकिन उनका स्वास्थ्य खराब हो गया या ऐसा ही कुछ कारण बना और वे हमारी पार्टी में नही जुड़े।
बापू ने स्मझा था कि कस्तूरबा पुरी गयी है , तो समुद्र-स्नान करके वापस आएगी। लेकिन बा के मन में पुरी जाने का हेतु जगन्नथजी के दर्शन करने का था। काका को लगा कि ( हरिजन-प्रवेश जिसमेम निषिद्ध है ऐसे ) मन्दिरोम में बापू खुद भले न जाते हों , लेकिन उनकी अहिंसा की साधना में दूसरोम के प्रति जो असीम उदारता का भाव रहता है , वह इन्लोगों को मन्दिर-प्रवेश करने से रोकेगा नहीं। मेरी माँ के सम्बन्ध में काका को मालूम ही था कि वह अस्पृश्यता नहीम मानती है। हमारे घर मेम कई वर्षों से हरिजन रहते आए हैं। इसलिए वह यदि मन्दिर में जाना चाहती हो , तो उसकी श्रद्धा को क्यों धक्का लगाया जाय ? ऐसा कुच सोचकर कका ने माँ को मन्दिर जाने से नहीं रोका।
हम लोग पुरी गये। समुद्र मेम नहाये। सारा शहर घूमे। फिर मन्दिर गये। मन्दिर के दरवाजे पर नोटिस लगी थी कि ‘ हिन्दुओं के सिवा अन्य किसीको मन्दिर में प्रवेश करने की मनाही है। ‘ यह नोटिस देखकर मैं और लीला बूआ रुक गये। मेरी माँ , कस्तूरबा , बेला मौसी और दूसरे कुच भाई – बहन अन्दर गए। मैं बाहर खड़ा रहकर पन्डों के साथ बहस करने मेम लग गया। पण्डों ने मुझे समझाने की कोशिश की कि अस्पृश्य ब्रह्मा के चरणों में से पैदा हुए हैं और ब्राह्मण ब्रह्मा के मस्तक में से पैदा हुए हैं , इसलिए अस्पृश्य ब्राह्मणों से निम्न श्रेणी के हैं। मैंने यह मानने से इनकार किया और कहा कि भगवान के सामने तो सभी बालक समान होते हैं।
बा आदि मन्दिर मेम से वापस आए तो उनके चेहरों पर सम्पूर्ण तृप्ति का भाव था। हम सब वापस लौटे। हमारी पार्ती में कुछ लोग दो मुँह वाले थे। मन्दिर में जाने में वे सबसे आगे थे उअर बापू के पास जा कर चुगली करने में भी वे आगे थे। ‘ बापू, सारे पुरि शहर में इसकी चर्चा है कि क्स्तूरबा मन्दिर में जाकर आयीं। पुरी के स्ट्शन मास्टर ने भी हम से पूछा कि क्या सचमुच मिसेस गांधी मन्दिर में गयीं ? ‘
बापू को आशा थी कि कस्तूरबा पुरी जा रही है , लेकिन मन्दिर में नहीम जाएगी। और जाना चाहे तो महादेव ने मन्दिर-प्रवेश के सम्बन्ध में मेरी मर्यादा बा को समझा कर उसको पुरी भेजा होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। इससे बापू को सख्त सदमा पहुँचा। बापू बोले , ‘ महादेव, हम तीनों को तो अब तलाक लेना पड़ेगा। ‘ लेकिन इसमें विनोद की अपेक्षा वेदना अधिक थी। बापू का रक्तचाप इतना बढ़ गया कि सबको चिन्ता होने लगी। माँ और काका को बुलाकर कहा , ‘ महादेव , तुमने बड़ी भूल की है। तुमने खुद के साथ , मेरे साथ और दुर्गा (मेरी माँ) के साथ अन्याय किया। तुम्हारा धर्म था कि तुम इन लोगों को पिछला इतिहास सुनाते। पुरी में क्या दशा के गयी थी वह भी बताते , वह सुनकर भी यह मन्दिर जाना चाहती तो मेरे पास उनको ले आते। फिर भी वे न मानतीं तो जाने देते। जबरदस्ती का प्रश्न नहीं था , लेकिन समझाना तो चाहिए था। ‘
काका को अपनी गलती महसूस हुइ , लेकिन उनको लगा कि यह सब गलतफ़हमी के कारण हुआ है। इसमेम बापू को इतना सदमा क्यों पहुँचना चाहिए, यह उनकी समझ में नही आ रहा था। काका ने यह बात गांधी-सेवा-संघ के सदस्यों के सामने रखी। बापू ने भी अपनी वेदना प्रकट की – ‘ बा मन्दिर में न जाते तो मैं गज ऊँचा चढ़ जाता। उसके बदले मैं नीचे गिरा। जिस ताकत से मेरा काम चल रहा था, उसीका मनो ह्रास हुआ , ऐसा मुझे लगा। इन लोगों का अज्ञान था,इसमें कोई शक नहीं। लेकिन उनको अज्ञान में किसने रखा ? हमने ही न ? उस अज्ञान को दूर न करने में अहिन्सा नहीं बल्कि हिन्सा है। आज वे हरिजन मानते ही हैं कि हम उनको ठग रहे हैं और वे ऐसा क्यों नहीं मानेंगे ? हम तो मन्दिर में जाते हैं , हरिजनों को जहाँ प्रवेश नहीं है ऐसे स्थानों का उपयोग करते हैं , तो ये कैसे समझेंगे कि हमने हरिजनों को अपनाया है ? ‘
इस भाषण से काका को अपने प्रति बहुत ग्लानि हुई – ‘अस्पृश्यता जैसे प्रश्न पर यदि मेरी इतनी गम्भीर गलतफ़हमी हुई हो तो मैं गांधीजी के विचारों को समझाने के काबिल नहीं। मैंने ही बापू को इतनी पीड़ा पहुँचाई तो दूसरों को रोकने का मुझे क्या अधिकार ? ‘
रातभर सब जागते रहे। काका रोये , माँ रोयी , बा रोयी। बापू रो तो नहीं सकते थे , लेकिन उनका ब्ल्ड-प्रेशर ऊँचा हो गया। काका ने बापू का साथ छोड़ने का विचार किया। मैं सुबह उठा तो परिस्थिति की गंभीरता का अधिक भान हुआ। काका कहने लगे,’बाबला, हम घर जायेंगे। मैं खेती करूँगा और तुझे पढ़ाऊँगा।’
मैंने साफ इनकार करते हुए कहा ,’ आपको जानाहो तो जाइये , मैं तो नहीं जाऊँगा।’ माँ ने भी काका के निर्णय का समर्थन नही किया।
बापू तो सुनने को ही तैयार नहीं थे। बोले , ‘ अभक्त के हाथ से जीने की अपेक्षा भक्त के हाथ से मरना कहीं बेहतर है। अन्ध-प्रेम के कारन तुमने पत्नी के भ्रम का साथ दिया। तुमको तो अपनी भूल पहचान कर दूसरे रोज इस संघ को लेकर पुरी जाना चाहिए था। उसके बदले रोते बैठे। यह कैसी कायरता ? ‘
काका ने बापू के पास से जाने का विचार छोड़ दिया। इस घटना के बाद ‘ हरिजन-बन्धु ‘ में उन्होंने जो लेख लिखा , उसमें यह विचार प्रकट किए –
‘ बार-बार मुझे लग रहा था कि जरा-सी गलतफ़हमी के कारण यह सारा प्रसंग बना। बड़े-से-बड़े पापरूपी हलाहल को शिवजी की तरह पी जाने वाले बापू इस एक बुद्धिदोष को लेकर इतने क्यों बिगड़ गए ? इस तरह तो तिल का पहाड़ हो जाता है।…. उस समय मुझे ऐसा ही लग रहा था। लेकिन आज शान्त-चित्त से सोचता हूँ , तो लगता है कि मैं उनकी परीक्षा करने वाला कौन होता हूँ ? मुझे जो तिल लगता है , वही उनको पहाड़ मालूम देता हो तो ? अतन्द्रित रहकर पचास वर्ष तक धर्माचरन करने वाले को धर्म अधिक समझ में आता है या राग-द्वेष से भरे हुए मुझ- जैसे को ? और उनके साथ रूठना कैसा ? उनके पास से जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ? उनको सन्तपद देकर स्वर्ग का देवता बना देना क्या उनके साथ न्याय होगा ? वे तो कभी अपने को देवता नहीं मानते , महात्मा भी नहीं मानते , हमारे जैसे ही काले बाल वाले मनुष्य वे अपने को मानते हैं , और इसी कारण उनके साथ रह भी सकते हैं। कभी उनका पुण्यप्रकोप उग्र हुआ , तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ? और बुरा मान कर भाग जाएंगे या उनकी प्रखरता में भगवान हमेम भस्म कर दे , ऐसा वरदान माँगेंगे ?’
काका के स्वर्गवास के बाद श्री झवेरचन्द मेघाणी ने काका के सम्बन्ध में एक लेख लिखा था। उसका शीर्षक था , ‘ अग्नि-कुण्ड में खिला गुलाब ‘। यह शीर्षक इस प्रसंग के लिए शब्दश: यथार्थ था।
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