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ग़रीबों का पैसा राष्ट्रमंडल खेलों के नाम?-क्रिस मॉरिस, बीबीसी

– क्रिस मॉरिस

बीबीसी के दक्षिण एशिया संवाददाता

सूचना का अधिकार क़ानून के तहत पाई गई आधिकारिक जानकारी आधार पर तैयार एक रिपोर्ट के मुताबिक ग़रीबी उन्मूलन की योजनाओं से करोड़ों रुपए की धनराशि दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में लगाई जा रही है.

ये रिपोर्ट ‘हाउसिंग ऐंड लेंड राइट्स नेटवर्क’ नामक संस्था ने तैयार की है. संस्था का कहना है कि उसने इस बारे में सूचना का अधिकार क़ानून के तहत सरकार से जानकारी उपलब्ध की है.

इस संस्था ने मांग की है कि इस मामले में स्वतंत्र जाँच कराई जानी चाहिए और पता लगाना चाहिए कि ये कैसे होने दिया जा रहा है.

दिल्ली में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि वे इन आरोपों पर ग़ौर कर रहे हैं.

‘दो हज़ार प्रतिशत वृद्धि’

ये रिपोर्ट भारत की केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को कटघरे में खड़ा करती है और राष्ट्रमंडल खेलों के लिए योजनाएँ बनाने और धन जुटाने के तरीक़ो पर सवाल खड़े करती है.

रिपोर्ट कहती है कि समाज के पिछड़े तबकों और ग़रीब वर्ग की मदद के लिए रखे गए करोड़ों रुपयों की राशि को और मक़सदों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रमंडल खेलों पर हो रहा ख़र्च नियंत्रण के बाहर चला गया है और खेलों का बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए पहले प्रस्तावित राशि के मुकाबले में अब 2000 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ोतरी हुई है.  (चित्र:बीबीसी)

साथ ही खेलों की वजह से एक लाख से अधिक लोगों को अपने घरों को छोड़ना पड़ा है. रिपोर्ट के अनुसार इस साल अक्तूबर में शुरु होने वाली खेलों से पहले 40 हज़ार और परिवार विस्थापित हो सकते हैं.

इस रिपोर्ट को तैयार किया है एक पूर्व सयुंक्त राष्ट्र मानवाधिकार अधिकारी मिलून कोठारी, जिन्होंने बीबीसी को बताया है कि संस्था के पास इन आरोपों की पुष्टि करने के लिए स्पष्ट सबूत हैं.

कोठारी के मुताबिक दिल्ली को एक विश्व-स्तर के शहर के रुप में दिखाने की होड़ में सरकार लोगों के प्रति अपनी क़ानूनी और नैतिक प्रतिबद्धता को भूल रही है.

साभार : बीबीसी (मूल स्रोत )

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साम्यवादी रूस और खेल : अशोक सेक्सरिया

अन्तरराष्ट्रीय खेलकूद में कम्युनिस्ट देशों की अभूतपूर्व सफलता , हमारी सरकार को उनकी भी नकल करने को प्रोत्साहित करती है ( जैसे पटियाला , बंग्लोर , ग्वालियर , राई , पूना के राष्ट्रीय खेल संस्थान जो रूस के राष्ट्रीय खेल स्कूलों के ही भारतीय खेल संस्करण हैं ) लेकिन उनके जैसा खेल-संगठन करने की न इच्छा-शक्ति है और न क्षमता , इसलिए खेलों का सारा ढाँचा इंग्लैण्ड और अमरीका की ही नकल में खड़ा हो रहा है । रूस में क्रान्ति के बाद बहस चली थी कि खेल कैसे हों । एक मत यह था कि प्रतियोगिताएं पूंजीवादी समाज की देन हैं , समाजवादी समाज में उनकी उपयोगिता नहीं ; जन-स्वास्थ्य उन्नत करने पर ध्यान देना है , प्रतियोगिताओं पर नहीं । यह मत पूरी तरह तो माना नहीं गया पर १९२८ तक प्रतियोगिताओं की जगह फ़िज़िकल कल्चर ( व्यायाम , स्वास्थ्य-उन्नति के कार्यक्रम ) पर ही जोर रहा। लेकिन स्टालिन द्वारा विरोधियों के सफ़ाये के साथ और पंचवर्षीय योजनाओं के साथ द्रुत औद्योगीकरण व आधुनिकीकरण के चलते प्रतियोगिताओं पर जोर बढ़ता गया । १९४९ में पारटी ने घोषणा की ” खेल-कूद में दक्षता को बढ़ाना है ताकि विश्व – प्रतियोगिताओं में सफलता मिले । ” १९५२ में रूस ने पहली बार ओलम्पिक में भाग लिया । तबसे कम्युनिस्ट देशों ( खासकर रूस और पूर्वी जरमनी ) ने अपनी केन्द्रीकृत व्यवस्था का उपयोग कर अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में असाधारण सफलता प्राप्त की । लेकिन यह भी कहना होगा कि उन्होंने अपने यहाँ बहुत बड़ी आबादी को खेल के अवसर भी प्रदान किए ।

यहां रूस की चरचा का उद्देश्य यह है कि इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति के साथ पबलिक स्कूलों के उदय के कारण १९वीं सदी में खेल-कूद का जो नक्शा बना और जो यूरोप और ब्रिटिश साम्राज्य में चल पड़ा , उसको जो चुनौती मिल सकती थी , वह रूस के भी प्रतियोगिता तत्व अपना लेने के कारण नहीं मिली । इससे पिछले ५०-६० सालों से खेलों में खेल के जो मूल तत्व (उमंग और सहजता) खत्म होता गया है और वे ज्यादा-से-ज्यादा संगठित किए जा रहे हैं जिससे वे किसी-न-किसी निश्चित प्रणाली के तहत होते हैं और राष्ट्र की इज्जत के सवाल और उन्माद के जनक बन जाते हैं । जब खेलों में जीतना सर्वोपरि हो जाता है , तकनीकों का विज्ञानसम्मत विकास किया जाना लगता है और दर्शकों पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता है , तब वे खेल नहीं रह जाते , दक्ष प्रदर्शन हो जाते हैं । हमारे यहां यही हो रहा है ।

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क्या एशियाई खेल वास्तव में खेल हैं ?

हिटलर और खेल

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हिटलर और खेल : अशोक सेक्सरिया

पिछले भाग से आगे :

१९ नवम्बर से एशियाई खेलों के नाम पर जो अश्लीलता होने जा रही है , उसमें कहीं भी वह खेल नहीं होगा जिसकी हमने ऊपर चर्चा की । इनमें तमगे बटेंगे , राष्ट्रगानों की धुनें बजेंगी और हारने का मातम व जीतने की बेहयाई होगी।  ऐसे में एशियाई खेलों को हम खेल क्यों मानें ? १९३६ में हिटलर ने बरलिन में ओलम्पिक खेलों का जो आयोजन करना चाहा था , वही कमोबेश इनमें किया जा रहा है । ओलिम्पिक के आयोजन में नाजियों ने पैसे की कोई परवाह नहीं की । न्यूरमबर्ग रैलियों के लगातार आयोजन से उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया था , उसे बहुत कारगर ढंग से ओलिम्पिक खेलों के आयोजन में लगाया | नाजियों की दृष्टि में ओलिम्पिक के आयोजन में खरच किया गया एक भी पैसा बेकार नहीं गया क्योंकि इससे उन्होंने दुनिया-भर में अपना जो धुंआधार प्रचार किया , वे किसी अन्य तरीके से नहीं कर सकते थे । नाजियों के यहूदी विद्वेष के कारण बरलिन में ओलिम्पिक करने के बारे में जो आपत्ति थी , उसे दूर करने के लिए हिटलर ने यह भ्रम भी फैलाया कि जरमनी की टीम में यहूदी लिये जायेंगे । ओलिम्पिक खेलों के आयोजन के पीछे हिटलर का उद्देश्य देशों के बीच प्रेम और मैत्री बढ़ाना नहीं था । उसका उद्देश्य विशुद्ध रूप से राजनीतिक था । अन्तरराष्ट्रीय खेलों का आयोजन होता ही है सरकारों की छवि निखारने के लिए । एशियाई खेलों का भी उद्देश्य यही है । दुनिया की ऋणदात्री संस्थाओं को भी दिखाना है कि भारत ऐसा देश है जिसे ऋण दिया जा सकता है ।

जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय खेलों से भाईचारा और मैत्री बढ़ाने की बात है , वह एक झूठी किंवदन्ती है । थोड़े ही दिनों में भारत क्रिकेट मैच होंगे , देखिएगा हम हिन्दुस्तानियों में पाकिस्तान के प्रति कैसा प्रेम उमड़ता है ! प्रेम बढ़ता है एक देश के कलाकारों , लेखकों के दूसरे देश जाने से और यहाँ के कलाकारों लेखकों के साथ आदान – प्रदान करने से , क्योंकि कलाकारों और लेखकों के बीच मैच नहीं होते । पिछली बार पाकिस्तानी टीम हमारे यहाँ आई थी तो हमने उसको हरा कर भेजा , इस बार हम जायेंगे तो वे हमे हराकर भेजेंगे । अन्तरराष्ट्रीय खेलों का सभ्य रिवाज यह है कि मेजबान राष्ट्र मेहमान राष्ट्र को चोरी , बदमाशी और समर्थकों के जोर से हराकर विदा करता है । एशियाई – खेलों में भारतीय फुटबाल टीम को यही आशा है कि दर्शकों के जोर के दम पर वह शायद एकदम फिसड्डी साबित न हो ( यह प्रशिक्षक का मत है ) । समाजवादी लेखक जार्ज आरवेल ने अन्तरराष्ट्रीय खेलों के चरित्र के बारे में लिखा था :

” अगर कोई ठोस उदाहरणों से , जैसे १९३६ के ओलिम्पिक भी इस बात को न जान पाए कि अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगितायें अन्तरराष्ट्रीय घृणा (के अतिरेक व उन्माद ) को जन्म देती हैं तो वह मोटी – मोटी बातों से ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि – महत्वपूर्ण खेलकूद (सिरियस स्पोर्ट्स) का समानता और न्याय की भावनाओं से कोई वास्ता नहीं है । ये तो घृणा , ईर्ष्या , घमंड , नियमों की अवज्ञा करने और हिंसा को देखकर परपीड़क आनन्द प्राप्त करने से अभिन्न रूप से जुड़ें हुए हैं । ये ऐसे युद्ध हैं जिनमें गोलीबारी के सिवाय सब-कुछ (सारी बुराइयाँ युद्ध की ) होता है । “

आरवेल ने चालीस साल पहले जब यह लिखा तब उनके दिमाग में १९३६ के ओलिम्पिक खेल और कुछ अन्तरराष्ट्रीय फुटबाल मैच थे । तबसे खेलों में जिन बुराइयों की आरवेल ने चर्चा की है , वे कई गुना बढ़ गयी हैं । हिंसा तो खेल-कूद की अनिवार्य अंग बनती जा रही है । खिलाड़ियों से यह अपेक्षा की जाती है कि उनमें ’ किलर इन्स्टिंक्ट ’ होगी यानी जीतने के लिए प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी को मार डालने तक की प्रवृत्ति । दर्शकों को तबतक पैसे वसूल होते नहीं दिखते जबतक उनको यह नहीं लगता कि खिलाड़ी उनका मनोरंजन करने के लिए ’पर और मार नहीं ’ रहे हैं । किसी खिलाड़ी के असफल रहने पर उसे धिक्कारा जाता है कि उसमें ’ किलर इन्स्टिंक्ट ’ ( ’हत्या करने की मूल प्रवृत्ति ’ ) नहीं है । ऐसे में खिलाड़ी अपने में ’किलर इन्स्टिंक्ट’ लाते हैं और जो बेचारे ला नहीं पाते वे दिखाने के लिए हिंसा का स्वांग करते हैं । इस तरह हिंसा बढ़ती ही जाती है । अब किसी भी तरह जीतना उद्देश्य बनता जाए तो यह होगा ही । खेलों से हिंसा का जो उन्माद बनता है वह नया है । जैसे नशेवान और ज्यादा नशा चाहता है , वैसे ही दर्शक खेल के मैदान में ज्यादा-से-ज्यादा हिंसा चाहता है ताकि उसका उन्माद बढ़े ।

( जारी )

अगली बार : खेल और व्यापार

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क्या एशियाई खेल वास्तव में खेल हैं ? – अशोक सेक्सरिया

एशियाई खेलों को लेकर देश भर में जब भयंकर उन्माद फैलाया जा रहा है, तब यह प्रश्न उठाना कि यह खेल वास्तव में खेल हैं भी कि नहीं – मूर्खता लगता है । मूर्खता के डर से आदमी सोचना बंद कर देता है और उस पागलपन में शामिल हो जाता है जो सरकार , कम्पनियां और अखबार एशियाई खेलों को लेकर फैला रहे हैं । आखिर , हमारे जैसे गरीब और भिखमंगे देश में , जहाँ आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे रह रही है और जिसकी सरकार ने हाल में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से रिरियाकर ५ हजार करोड़ रुपये का ऋण लिया हो , एक हजार करोड़ रुपये खरच कर खेलों का आयोजन करना पागलपन नहीं है तो और क्या है ? अगर पागलपन नहीं , तो फिर बीमार बच्चे या बीमार बाप की दवा पर न खरच कर टेलिविजन खरीदने पर खरचने – जैसी क्रूरता और कृतघ्नता है ।
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खेल उमंग की सहज अभिव्यक्ति है । उनका आदिरूप हम बच्चों में देखते हैं , वे हमेशा खेलते रहते हैं । अकेला बच्चा भी खेलता रहता है । हम देखते हैं कि कोई अकेला बच्चा , कुछ न मिला तो रास्ते पड़ी सिगरेट की डिबिया को ही ठोकर मारता या अपने पास की किसी चीज को उछालता और लपकता हुआ खेल की सृष्टि कर रहा है । एशियाई खेलों के स्टेडियम बनानेवाले मजदूरों के मरियल बच्चे भी , माँ – बाप के काम पर चले जाने पर , निश्चय ही खेलते होंगे ।
बच्चों के खेल में प्रतियोगिता के बजाय उमंग और आनंद की ही प्रधानता होती है । इस आनंद की एक छवि यहाँ रखते हैं –

” वह शहर का गंदा मुहल्ला था । उसकी संकरी गली से गुजरते ही लगता था , बदन की कमीज मैली हो गयी है । कहीं कोई थूक रहा था तो कोई मूत रहा था । मिठाई की दूकान में सजी हुई मठाइयां देखकर ही दिमाग में मक्खियां भिनभिनाने लगती थीं । गली के किनारे आते – जाते लोगों के बीच दो बच्चे लकड़ी की तख्तियों ( पटरों ) और प्लास्टिक की चिड़िया से आधे बैडमिन्टन और आधे टेबल -टेनिस जैसा कोई खेल खेल रहे थे । उनके बीच कोई जाल नहीं था । जाल की कल्पना उनके मन में थी । मैले और गन्दे होने के बावजूद खेलते हुए दोनों बड़े सुन्दर मालूम पड़ रहे थे । एक पल वह रुक गया और उनका खेल देखने लगा । उसने देखा कि वे खेल खेल रहे हैं , हार – जीत नहीं रहे हैं । दोनों अपनी तख्तियों से चिड़िया को इस तरह मार रहे हैं कि वह जमीन पर न गिरे । मिल – जुल कर खेल को साध रहे हैं लेकिन यह मिलना – जुलना ऐसा भी नहीं कि मिलीभगत हो जाए । एक बच्चा चिड़िया को इस तरह मारता था कि दूसरे बच्चे को उसे लौटाने में दिक्कत तो हो पर इतनी नहीं कि चिड़िया जमीन पर गिर जाये । उनका इरादा हारने – जीतने का नहीं था , खेल खेलने का था , सो वे बच्चे होने पर भी एक ऐसे संतुलन की तलाश में थे जिसमें थोड़ी चुनौती तो हो पर हार – जीत के बजाय आनन्द-ही-आनन्द हो । “

तो खेल का यही तत्व और सत्व है कि उसमें आनन्द हो , सहजता हो और ऊपर से थोपा गया कोई संगठन न हो । बच्चों के खेल में यदि उसे बड़े बिगाड़ न दें , यही तत्व रहता है । लेकिन आदमी सब समय तो बच्चा नहीं रहता , वह बड़ा हो जाता है ; पर उस सहज उमंग को खोना नहीं चाहता जिसे उसने बचपन में जाना था । इसीलिए वह खेलना चाहता है , अपने अंगों में थिरकन पैदा करना चाहता है ; लेकिन बच्चे की तरह खेल नहीं पाता , इसलिए वह ज्यादा-से-ज्यादा इस बात की कोशिश करता है कि बच्चे की तरह खेले । इस कोशिश में वह बचपन के सत्य को पुन: निर्मित करता है , इसीलिए उसका खेल अभिनय होता है ; पर इतना अभिनय भी नहीं कि खेल रह ही न जाए । बच्चों और बड़ों के खेल में यही सूक्ष्म अंतर है । खेल का संसार बड़ों के लिए उमंग – भरे अभिनय का संसार है , जिसके नियम , कायदे और कानून ऐसे नहीं हैं कि जिनसे उन्हें डर लगे । यह जीवन की जटिलताओं से मुक्ति का अहसास दिलाने वाला और प्रसन्न रखने वाला संसार है । इसमें तमगे नहीं हो सकते , हार-जीत नहीं हो सकती और न ही दो लाख मजदूरों के शोषण से निर्मित अश्लील वैभव ।

( जारी )

आगे : हिटलर और खेल

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