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लाल्टू की चुनी हुई कवितायें

मैं तुझे खुद में शामिल करता हूँ
मेरी रातों में कही जा तू कविता

फैलता हुआ तुझे थामने स्थिर होता
लील लेता तुझे जब
धरती पर अनंत दुखों का लावा पिघलता ।

बहुत दिनों के बाद तुझसे रूबरू होता हूँ ।

मेरी उँगलियाँ बंद पड़ी हैं
उन्हें खुलने से डर लगता है ।
तू  मेरे आकाश में है
आ तू मेरे सीने पे आ
मेरी उँगलियों को तेरा इंतज़ार है
जीवन गीत के छींटों से मुझे गीला कर
तू आ कविता।

डर होता है छत गिरने का
भूकंप आने का
डर न जाने  क्या क्या होता।

प्रतिकृतियाँ जिनमें ढूँढते हैं
वे नक्षत्र और दूर हो चले
औरों की आँखों में जो दिखते हैं लिबास
डर होता है कि वे मुझपे ही जड़े हैं ।

आ तू मेरी उँगलियों से बरस
कि वे धरती को डर से मुक्त करें
पेड़ों को खिड़की से अंदर हूँ खींच लाता।

२.  क कथा

क कवित्त
क कुत्ता
क कंकड़
क कुकुरमुत्ता ।

कल भी क था
क कल होगा ।

क क्या था
क क्या होगा।

कोमल ? कर्कश ?

(अक्तूबर   २००३ )

३.  ख खेलें

खराब ख
ख खुले
खेले राजा
खाएं खाजा ।

खराब ख
की खटिया खड़ी
खिटपिट हर ओर
खड़िया की चाक
खेमे रही बाँट ।

खैर खैर
दिन खैर
शब खैर ।

(अक्तूबर   २००३)

४. खतरनाक

जो नियमित हैं उनका अनियम।
जो संतुलित उनका असंतुलन।

जो स्पंदित हैं उनकी जड़ता
जो सरल उनकी जटिलता।

जो इसलिए मेरे साथ कि मैं उनके गाँव का हूँ
या दूर के रिश्ते का भाई या चाचा हूँ
उनकी सरलता।

जो वाहवाही करते हैं उनकी चैन की नीद
बिना नमक की दाल में ज्यादा पड़ा हींग।

(सर्जक-५: जून २००३)

५.  दुर्घटना

सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था।

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी
गाड़ीवालों ने कहा साला साइकिल कहाँ से आ गया
कुछ लोग साइकिल के जख्मों पर पट्टियाँ लगा रहे थे
वह नहीं था

सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था।

जो रहता है वह नहीं होता है।

(पश्यंती – २०००)

६. लिखना चाहिए

लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
जो लिखना चाहिए

लिखना चाहिए कि
सरकार की अस्थिरता के आपात दिनों में
एक शाम उसका चेहरा था
मेरी उँगलियों को छूता

कि दिनभर दौड़धूप टकेपैसे की मारकाट के बाद
वह मैं रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े
देख रहे थे अस्त जाता सूरज

भीड़ सरकार की अस्थिरता से बेखबर यूँ
सूरज उन तमाम रंगों में रँगा
जो उसके साथ हमें भी शाम के धुँधलके में छिपाए

कि उसके जाने के बाद लगातार कई शाम
मेरी उँगलियाँ ढूँढती हैं
उसकी आँखें
सूरज हर शाम पूछता कुछ सवाल

लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
हमारे उसके रोशनी के क्षण
जब सूरज और अपने दरमियान
अँधेरे में बेचैन है मन।

(पश्यंती – २०००)

७. शरत् और दो किशोर

जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं
जैसे शरत् के बादल

सुबह हल्की बारिश हुई है
ठंडी उमस
पत्ते हिलते
पानी के छींटे कण कण
धूप मद्धिम
चल रहे दो किशोर
नंगे पैरों के तलवे
नर्म
दबती घास ताप से काँपती

संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं
या बादलों के बीच पतंगें
इकट्ठे हाथ
धूप में कभी हँसते कभी गंभीर
एक की आँखें चंचल

ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े
दूसरे की आँखों में करुणा
जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है

उन्हें नहीं पता
इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को
गीतों में सँवार रहे हैं
कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें

फिलहाल उनके चलते पैर
आपस की करीबी भोग रहे हैं
पेड़ों के पत्ते
हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं
शरत् की धूप ले रही है गर्मी
उनकी साँसों से

आश्वस्त हैं जनप्राणी
भले दिनों की आशा में
इंतजार में हैं
आश्विन के आगामी पागल दिन।

(पश्यंती – १९९५)

८.  भारत में जी

बायोटेक्नोलोजी, फेनोमेनोलोजी, ऐसे शब्द है जिनमें आखिर में जी आता है ।
ऐसे शब्द मिलकर गीत गाते हैं । शब्द कहते हैं बैन्ड बजा लो जी।
इसी बीच भारत बैन्ड बजाता हुआ चाँद की ओर जाता है।

चाँद पर कविता उसने नहीं पढ़ी।
भारत को क्या पड़ी थी कि वह जाने चाँद को चाहता है चकोर।
भारत ने चाँद जैसे सलोने लोगो से कह दिया
– ओ बायोटेक्नोलोजी, बैन्ड बजा लो जी।
ओ चाँद बजा लो जी, ओ फेनोमेनोलोजी ।

चाँद जैसे लोगो ने कहा – हड़ताल पर जाना देशद्रोह है।
चाँद उगा टूटी मस्जिद पर। ईद की रात चाँद उगा ।
हर मजलूम का चाँद उगा ।
भारत में।
जी।

(पश्यंती – २००४)

९. भाषा

एक आंदोलन छेड़ो
पापा ममी को
बाबू माँ बना दो

यह छेड़ो आंदोलन
गोलगप्पे की अंग्रेज़ी कोई न पूछे
कोई न कहे हुतात्मा चौक
फ्लोरा फाउंटेन को
परखनली शिशु को टेस्ट-ट्यूब बेबी बना दो

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

यह छेड़ो आंदोलन
कि भाषा पंख पसार उड़ चले
शब्दों को बड़ा आस्माँ सजा दो।

(समकालीन भारतीय़ साहित्य – १९९४)

१०.  देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने ह्त्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।

(पश्यंती – २००४; पाठ – २००९)

११. एक और औरत

एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठ एक और औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
इश्तहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देखती मुस्कराती है
एक औरत फोन का डायल घुमा रही है और मैं सोचता हूँ वह मेरा ही नंबर मिला रही है

माँ छः घंटों बस की यात्रा कर आई है
माँ मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात को औरत का आना मना है।

(प्रगतिशील वसुधा- २००५)

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लाल्टू की सात कवितायें

[ लाल्टू भौतिकी के प्रोफ़ेसर हैं । कवि और कहानीकार हैं । अध्यापक राजनीति से भी जुड़े रहे हैं । ब्लॉग के माध्यम को भी उन्होंने तरजीह दी। इन दिनों मुझे उन्हें बार – बार घेरने का मौका मिला है । नतीजन , उनकी कवितायें मिली हैं । ]

१. स्केच २००८

अभी कोई घंटे भर पहले शाम हुई है
हाल के महीनों में धड़ाधड़ व्यस्त हुए
इस इलाके की सड़क पर दौड़ रही हैं गाड़ियाँ
कहीं न कहीं हर किसी को जाना है औरों से पहले
और शाम है कि अपनी ही गति से उतर रही है

एक काला शरीर सड़क के किनारे
पड़ा है इस बेतुकी लय में बेतुके छंद जैसा
ठीक इस वक्त पास से गुजर रहे हैं दो विदेशी
महिला ने माथे पर पट्टी पहनी है
अंग्रेज़ी की खबर रखने वाले इसे वंडाना कहते हैं
दो चार की जुटी भीड़ से बचते जैसे निकले हैं वे
इसे नीगोशिएट करना कहते हैं
हालांकि इस शब्द का सही मतलब संधि सुलह जैसा कुछ है

दो चार लोग जो जुटे हैं आँखें फाड़ देख रहे हैं
आम तौर पर होता कोई पियक्कड़ यूँ सड़क किनारे गिरा
थोड़ा बहुत बीच बीच में हिलता हुआ
पर यह मरा हुआ शरीर है बिल्कुल स्थिर
दो चार में एक दो कुछ कह रहे हैं जैसे

कि कौन हो सकता है या है
यह शरीर किसी गरीब का
उतना ही कुरुप जितनी सुंदर वह विदेशी महिला
क्या कहें इसे यथार्थ या अतियथार्थ
यह भी सही सही अंग्रेज़ी में ही कहा जाता है
वैसे भी इन बातों पर विषद्  चर्चा करने वाले लोग
कहाँ कोई भारतीय भाषा पढ़ते हैं
इस स्केच में अभी पुलिस नहीं है
बाद में भी कोई ज्यादा देर पुलिस की
इसमें होने की संभावना नहीं है

भारत के तमाम और मामलों की तरह पुलिस कहाँ होती है
और किसके पक्ष या किसके खिलाफ होती है

यह भाषाई मामला है
बहरहाल फिलहाल इस स्केच को छोड़ दें
जो मर गया है उसको मरा ही छोड़ना होगा
अगर थोड़ी देर रोना है तो रो लो
पर जो ज़िंदा हैं उनके लिए रोने की अवधि लंबी है
इसलिए आँसुओं को बचाओ और आगे बढ़ो।           (प्रतिलिपि-जून २००९)

२.अश्लील

एक आदमी होने का मतलब क्या है
एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है
एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है
मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए
दाँत निकालते हैं

एक अखबार है जिसमें लिखा है
एक वेश्या का बलात्कार हुआ है
एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है
बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में
वह सच नहीं
जो बलात्कार शब्द में है

एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है
तर्कशील  अंग्रेज़ी में  लिखता है
कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है

उस आदमी के लिखते ही
अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है

                          (पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००)

३. डरती हूँ

जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर

जब तुम अंदर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी श्वास

अंदर बाहर के किसी सतह पर होते जब

डरती हूँ

डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़

जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप

सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में

बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।

–हंस–अप्रैल १९९८

४.उसकी कविता

उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह

उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह

वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार

पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का जो दरअस्ल है एक नाम

समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी

गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।

               (हंस १९९७)

५. अर्थ खोना ज़मीन का

मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन

उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिंडलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे

सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की

एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।

–हंस–अप्रैल १९९८

६. हमारे बीच

जानती थी
कि कभी हमारी राहें दुबारा टकराएंगीं
चाहती थी
तुम्हें कविता में भूल जाऊँ
भूलती-भूलती भुलक्कड़ सी इस ओर आ बैठी
जहाँ तुम्हारी डगर को होना था ।

यहाँ तुम्हारी यादें तक बूढ़ी हो गई हैं

इस मोड़ पर से गुज़रने में उन्हें लंबा समय लगता है
उनमें  नहीं चिलचिलाती धूप में जुलूस से निकलती
पसीने की गंध ।

तुम्हारे लफ्ज़ थके हुए हैं
लंबी लड़ाई लड़ कर सुस्ता रहे हैं
मैं अपनी ज़िद पर चली जा रही हूँ
चाहती हुई कि एकबार वापस बुला लो
कहीं कोई और नहीं तो हम दो ही उठाएंगे
कविताओं के पोस्टर ।

मैं मुड़ कर भी नहीं देखती
कि तुम तब तक वहाँ खड़े हो
जब तक मैं ओझल नहीं होती ।

लौटकर अंत में देखती हूँ
हमारे बीच मौजूद है
एक कठोर गोल धरती का
उभरा हुआ सीना ।                                        (पल-प्रतिपल २००५)

७. मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?

मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
अगर ऐसा पूछो तो मैं क्या कहूँगा।
बीता हुआ वक्त तुमसे ले सकता हूँ क्या?
शायद ढलती शाम तुम्हारे साथ बैठने का सुख ले सकतआ हूँ। या जब थका हुआ
हूँ, तुम्हारा कहना,
तुम तो बिल्कुल थके नहीं हो, मुझे मिल सकता है।

तुम्हें मुझसे क्या मिल सकता है?
मेरी दाढ़ी किसी काम की नहीं।
तुम इससे आतंकित होती हो।
असहाय लोगों के साथ जब तुम खड़ी होती हो, साथ में मेरा साथ तुम्हें मिल सकता है।
बाकी बस हँसी-मजाक, कभी-कभी थोड़ा उजड्डपना, यह सब ऊपरी।

यह जो पत्तों की सरसराहट आ रही है, मुझे किसी का पदचाप लगती है,
मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?
                                                 – अगस्त २००५

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