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कविता / होमवर्क / श्यामबहादुर ‘नम्र’

होमवर्क

एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है।
वह लकड़ियाँ बटोरकर घर लाती है,
फिर माँ के साथ भात पकाती है।

एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है,
शाम को थकी मांदी घर आती है।
वह स्कूल से मिला होमवर्क, माँ-बाप से करवाती है।

बोझ किताब का हो या लकड़ी का दोनों बच्चियाँ ढोती हैं,
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा,
लकड़ी लाने वाली बच्ची, यह जानती है।
वह लकड़ी की उपयोगिता पहचानती है।
किताब की बातें, कब, किस काम आती हैं?
स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे रट जाती है।

लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और माँ के साथ भात पकाना,
जो सचमुच गृह कार्य हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते हैं।
लेकिन स्कूल से मिले पाठों के अभ्यास,
भले ही घरेलू काम न हों, होमवर्क कहलाते हैं।

ऐसा कब होगा,
जब किताबें सचमुच के ‘होमवर्क’ (गृहकार्य) से जुड़ेंगी,
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियाँ भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी?

– श्यामबहादुर ‘नम्र’

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कविता / खबरदार ! वे आ रहे हैं / राजेन्द्र राजन

[ पिछले दिनों घुघूतीबासूती ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारतीय मूल के इंग्लैण्ड के एक नागरिक द्वारा खरीदे जाने पर एक पोस्ट लिखी । उसे पढ़कर मुझे १९९२-९३ में कवि-मित्र राजेन्द्र राजन द्वारा लिखी यह कविता याद आई ।

श्यामलाल ’पागल’और विपुल द्वारा बनाये गये पोस्टर चित्रों के साथ इस कविता की चित्र प्रदर्शनी को कई राज्यों में दिखाया था ]

स्वागत करो

सजाओ वन्दनवार

वे आ रहे हैं

दुनिया के बड़े-बड़े महाजन

सेठ – साहूकार

तुम्हारी नीलामी में

बोलियाँ बोलने

वे आ रहे हैं

तुम्हारे खेतों की

तुम्हारी फसलों की

तुम्हारे बीजों की

तुम्हारे फलों की

तुम्हारे बैलों की

तुम्हारे हलों की

नीलामी में बोलियाँ बोलने

वे आ रहे हैं

स्वागत करो

पहनाओ गले में हार

उन आगन्तुकों में नहीं हैं वे

जो आए थे पुराने जमानों में

नालन्दा और तक्षशिला

ज्ञान की प्यास लिए

वे आ रहे हैं

मुनाफ़े की आस लिए

जैसे आई थी ईस्ट इंडिया कंपनी

बढ़ने लगी दिन दूनी रात चौगुनी

बनाने लगी किले

फिर जिले

और फिर सारा देश

हो गया उसका उपनिवेश

वे आ रहे हैं

ईस्ट इंडिया कंपनी के

नए बही-खाते लिए

गले में कारीगरों के कटे अंगूठों की मालाएं पहने

भोपाल की जहरीली गैस छोड़ते

वे आ रहे हैं .

खबरदार !

कोई उन्हें रोके नहीं

कोई उन्हें टोके नहीं

उनके इशारों पर नाचती है सरकार

वे हैं हमारे शाही मेहमान

महाप्रभु दयावान

उन्हें बुला रहे हैं देश के तमाम

अमीर – उमरा हाकिम – हुक्काम

उनके लिए ला रहे हैं वे

अन्त: पुर के नए साज – सामान

स्वागत करो

खड़े हो जाओ बांधकर कतार

वे आरहे हैं

विकास के महान ठेकेदार

जो बाँटते हैं उधार

मुद्राकोष के विटामिन

और विश्व बैंक की प्रोटीन

और भी कई तरह की बोतलें रंगीन

जो हैं कमजोर और बीमार

वे कर लें अपनी सेहत में सुधार

आज जिनकी है सेहत ठीक

कल उसे देंगे वे बिगाड़

ताकि चलता रहे इलाज का उनका व्यापार

वे आ रहे हैं

नई गुलामी के सूत्रधार

लेकर डॉलर के हथियार

वे खरीदेंगे पूरे संसार को

बेचेंगे जादुई प्रचार

उन्हें आते हैं कई चमत्कार

वे बदल देंगे तुम्हारा दिमाग

तुम्हारी आँखें

तुम्हारा दिल

तुम्हारी चाल

तुम्हारी भाषा

तुम्हारे संस्कार

तुम्हारी अकल होगी बस नकल

तुम्हारी कला बन जाएगी चकला

संस्कृति होगी तुम्हारी

हिप-हिप हुला-हुला

हिप-हिप हुला-हुला

वे करेंगे तुम्हारा पूरा कायाकल्प

होंगे तुम गुलाम

नहीं लोग आजादी का नाम

भूल जाओगे लड़ने का विचार

नहीं उठेगा कोई भी उजला संकल्प

जो सूत्र वे बोलेंगे एक बार

तुम उसे दोहराओगे बारम्बार

वे खायेंगे तुम टपकाओगे लार

वे फटकारेंगे

तुम करोगे उनकी जय जयकार

तुम नाचोगे जब पड़ेगी तुम पर मार

इसे तुम कहते रहो सुधार

तुम्हार महिमा अपरम्पार

उनकी माया है विकराल

हर मुल्क हर शर में हैं

उनके पिट्ठू

उनके दलाल

जो कहते हैं उन्हें

दुनिया के खेवनहार

समझाते हैं हमें

भरोसा मत रखो

अपनी मेहनत पर

अपनी बु्द्धि पर

अपनी ताकत पर

अपनी हिम्मत पर

वे आयेंगे करेंगे तुम्हारा बेड़ापार

मत थामो खुद अपनी पतवार

वे आ रहे हैं

करने तुम्हारे मुल्क का उद्धार

उन्हें मिल गये हैं भारी मददगार

तुम्हारे ही कर्णधार

जो डरने को तैयार

जो झुकने को तैयार

जो बिकने को तैयार

कहें वे जो सब करने को तैयार

उन्हें सौंप रहे हैं वे

तुम्हारे घर के सब अधिकार

वे बना देंगे

तुम्हारे ही घर में तुम्हें किराएदार

जो चाहते हैं इसे करना इनकार

आज उठें वे करें ये ललकार

सत्ताधीशों का स्वेच्छाचार नहीं है हमारा देश

न पिशाचों का बाजार नहीं है हमारा देश

गिरवी सौदा फंदा व्यापार नहीं है हमारा देश

दासानुदास बंधुआ लाचार नहीं है हमारा देश

मुक्ति का ऊँचा गान है हमारा देश

जो गूँजता है जमीन से आसमान तक

सारे बंधन तोड़

उठेगी जब भी यह ललकार

उन्हें बुलाने वाले तब कहीं नहीं होगंगे

उनके चरण चूमने वाले तब कहीं नीं होंगे

अपने अन्त:पुर से वे फेंक दिए जायेंगे

इतिहास की काल-कोठरी में

उन्हें खाएगा उनका अंधकार

हमारे ही कंधों पर यह भार

जो मिट जायेंगे मगर

करेंगे हर गुलामी का प्रतिकार

हमारे ही कंधों पर यह भार

इतिहास जिनसे करता है हिसाब

भविष्य को जो देते हैं जवाब

हमारे ही कंधों पर यह भार

जो चाहते हैं आज

कि दुनिया बने एक समाज

न पागल सत्ता की अंधी चाल

न पूंजी का व्यभिचार

हमारे ही कंधों पर यह भार

जो सुन सकते हैं वक्त की पुकार

हमारे ही कंधों पर यह भार ।

– राजेन्द्र राजन





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काले बादल : केरल की मीनाक्षी पय्याडा की कविता

[ मीनाक्षी पय्याडा के माता – पिता दोनों शुद्ध मलयाली हैं , यानी केरलवासी । उसकी माँ , केरल के कन्नूर जिले में केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका है इसलिए मीनाक्षी को अपने स्कूल ( केन्द्रीय विद्यालय) में हिन्दी पढ़ने का मौका मिला। मीनाक्षी को अब तक किसी हिन्दी भाषी राज्य की यात्रा का मौका नहीं मिला है । हमारे दल , समाजवादी जनपरिषद के हाल ही में धनबाद में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में मीनाक्षी के पिता हिन्दी में लिखी उसकी यह प्यारी सी कविता साथ लाये थे ।  – अफ़लातून ]

kale badal

काले बादल

काले बादल

आओ बादल , काले बादल

बारिश हो कर आओ बादल

सरिता और सागर को भरो पानी से ।

मैं संकल्प करती हूँ

तुम्हारे साथ खेलने का ,

पर तुम आए तो नहीं ?

आओ बादल , तुम आसमान में घूमते फिरते

पर मेरे पास क्यों नहीं आते ?

तुम यहाँ आ कर देखो

कि ये बूँदें कितनी सुन्दर हैं ।

क्या मजा है आसमान में

तुम भी मन में करो विचार ।

आओ बादल , काले बादल ।

– मीनाक्षी पय्याडा ,

उम्र – १० वर्ष , कक्षा ५,

केन्द्रीय विद्यालय ,

’ चन्द्रकान्तम’ ,

पोस्ट- चोव्वा ,

जि. कन्नूर – ६

केरलम

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खतरनाक हुआ वर्ष : चन्द्रकान्त देवताले

खतरनाक हुआ वर्ष

अपने असंख्य वर्षों के बारे में

चुप ही रहेगी पृथ्वी

पर मेरे छप्पन वर्षों के बाद

उगा यह तबाही से खतरनाक हुआ वर्ष

मनहूस दस्तावेज की तरह

फड़फड़ाता ही रहेगा

बची – खुची जिन्दगी की छाती पर

 

इतनी बर्बरता और इतनी जल्दी और इतनी फुरती से

कौन थे उन्मत्त घोड़ों पर सवार

जिनकी दहलाती टापों ने रौंद दिये

बच्चों के भविष्य के घरौंदे

 

भूकंप के बाद

खड़े होने लगते हैं घर

तूफान के बाद

जाल और डोंगियाँ सुधारने लगते हैं

मछुए और मल्लाह

पर इस मलबे में दब कर क्षत – विक्षत हुए ईश्वर को

शायद ही जोड़ पाऊँगा मैं ।

– चन्द्रकान्त देवताले    ( दिसम्बर ,१९९२ )

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नल की हड़ताल

आज सुबह से नल था मौन ,
पता नहीं कारण था कौन ?
मैंने पूछा तनिक पास से ,
भैय्या दिखते क्यों उदास से ?
बोला , ‘क्या बतलाऊं यार ,
रोज सहन करता हूं मार .
कान ऐंठता जो भी आता ,
टांग बाल्टी मुझे सताता .
लड़ते मेरे पास खड़े हो ,
बच्चे हों या मर्द बड़े हों .
नहीं किसी को दूंगा पानी !
इसीलिए हडताल मनानी !

पास रखी तब बोली गागर ,
‘ हम हैं रीते,तुम हो सागर ,
जल्दी प्यास बुझाओ मेरी ,
सोच रहे, क्या ? कैसी देरी ?

नल को दया घडे पर आई,
पानी की झट धार बहाई ..
(कवि- अज्ञात,किसी को पता हो तो जरूर बताए )

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यह कौन-सी अयोध्या है ? : राजेन्द्र राजन

अयोध्या का यही अर्थ हम जानते थे

जहाँ न हो युद्ध

हो शांति का राज्य

अयोध्या की यही नीति हम जानते थे

जहाँ सबल और निर्बल

बिना भय के

पानी पीते हों एक ही घाट

अयोध्या की यही रीति हम जानते थे

जहाँ प्राण देकर भी

सदा निभाया जाये

दिया गया वचन

यह था अयोध्या का चरित्र

गद्दी का त्याग और वनवास

गद्दी के लिए खूनी खेल नहीं

अयोध्या का मतलब

गृहयुद्ध का उन्माद नहीं

घृणा के नारे नहीं

अयोध्या का मतलब कोई इमारत नहीं

दीवारों पर लिखी इबारत नहीं

अयोध्या का मतलब छल नहीं , विश्वासघात नहीं

भय नहीं रक्तपात नहीं

अयोध्या का मतलब

हमारी सबसे मूल्यवान विरासत

अयोध्या का मतलब

मनुष्य की सबसे गहरी इबादत

अयोध्या का मतलब

हमारे आदर्श , हमारे सपने

हमारे पावन मूल्य

हमारे हृदय का आलोक

अयोध्या का मतलब न्याय और मर्यादा और विवेक

अयोध्या का मतलब कोई चौहद्दी नहीं

अयोध्या का मतलब सबसे ऊँचा लक्ष्य

जहाँ दैहिक , दैविक , भौतिक संताप नहीं

यह कौन-सी अयोध्या है

जहाँ बची नहीं कोई मर्यादा

यह कौन-सी अयोध्या है

जहाँ टूट रहा है देश

यह कौन-सी अयोध्या है

जहाँ से फैल रहा है सब ओर

अमंगल का क्लेश

यह कौन-सी अयोध्या है

जहाँ सब पूछते नहीं

एक-दूसरे का हाल-चाल

पूछते हैं केवल अयोध्या का भविष्य ।

– राजेन्द्र राजन.

  फरवरी १९९३.

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शब्द बदल जाएं तो भी

वे जान गए हैं

कि नहीं उछाला जा सकता

वही शब्द हर बार

क्योंकि उसका अर्थ पकड़ में आ चुका होता है

इसीलिए

वे जब भी आते हैं

उछाल देते हैं कोई और शब्द

गिरगिट के रंग बदलने की तरह

जब बदल जायें शब्द

तो अर्थ वही रहता है

शब्द बदल जायें तो भी

– राजेन्द्र राजन

   १९९५.

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जहाँ चुक जाते हैं शब्द : राजेन्द्र राजन

शब्दों में शब्द जोड़ते

मैं वहाँ आ पहुंचा हूं

जहां और शब्द नहीं मिलते

मैं क्या करूँ

अब मैं कैसे लिखूं

समय के पृष्ट पर

अपनी सबसे जरूरी कविता

शब्दों में शब्द जोड़ते

जहां चुक जाते हैं शब्द

मैं क्या करूं ?

क्या मैं वहीं खुद को जोड़ दूं ?

मगर

क्या अपने शब्दों जैसा मैं हूं ?

– राजेन्द्र राजन

   १९९५.

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पश्चाताप : राजेन्द्र राजन

महान होने के लिए

जितनी ज्यादा सीढ़ियाँ मैंने चढ़ीं

उतनी ही ज्यादा क्रूरताएं मैंने कीं

ज्ञानी होने के लिए

जितनी ज्यादा पोथियां मैंने पढ़ीं

उतनी ही ज्यादा मूर्खताएं मैंने कीं

बहादुर होने के लिए

जितनी ज्यादा लड़ाइयां मैंने लड़ीं

उतनी ही ज्यादा कायरताएं मैंने कीं

ओह , यह मैंने क्या किया

मुझे तो सीधे रास्ते जाना था

– राजेन्द्र राजन .

 

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कविता : ब्लैक बोर्ड : ज्ञानेन्द्रपति

 

औचक पहुँचे , उस दिन हमने

साँझ को शुरु होते देखा

चनमा सट्टी चौराहे पर की

उस चाय – दुकान में

ढलती साँझ हमारे पहुँचने तक

जो गहगह होती थी

अब जानता हूँ

उस चाय – दुकान की साँझ

बहुत पहले शुरु हो जाती है

दोपहर ढलते ही

तिपहरी के साथ

उस चाय – दुकान के भोजनावकाश को

समाप्त घोषित करता हुआ

उसका उधड़नीलरंग शटर उठ जाता है , नन्हें हाथों

पूरा नहीं , थोड़ा – सा

बमुश्किल हमारे घुटनों तक

लेकिन काफी उन तीन बच्चों के लिए

जो संझा के अग्रदूत हैं

( और सुबह के भी )

तनिक सिर झुकाकर अबाध उनकी आवाजाही

दुकनिया के भीतर – बाहर

कर्म – कुशल वे तीन नन्हें बच्चे

एक बच्चा – तनिक गुलथुल-सा

और दो बच्चियाँ भूरे केशोंवाली

एक मँझोली हथौड़ी से

बच्चा फोड़ता है कोयले

ऊँकड़ूँ बैठ

बच्चियों में जो बड़ी है , निहुर

एक टुटही झाड़ू से बुहारती है फर्श

साफ , बहुत साफ – झकाझक

दूसरी बच्ची इस बीच

सामान उठाती है धरती है

परात , पतीला , केतली , बोयाम

फिर धुँआ उठता है

देर तक

तब अँगीठी दहकती है

शाम जब बस जाती है

यादवजी की चाय – दुकान चुस्कियों और मुस्कियों से

भरी होती है

वे बच्चे तब नहीं दिखते हैं

वे बच्चे तब हमारे नेत्र-तल के नीचे होते हैं

वे पाँव हैं जिनके बल पर

अचल खड़ी भी वह दुकान चलती है

यादवजी की चाय – दुकान

बड़ी भोर से देर रात तक थिर न रहनेवाले

वे पाँव – जिनसे गुम गया है उनका गन्तव्य

अनथक कदमताल करते हुए जो मार्च कर रहे हैं

नन्हें सिपाहियों के पाँव

जो आगे बढ़कर जीत लेंगे

अपने पिता का निबुध स्वार्थ – समर

और आह ! हार जायेंगे

आखिरकार

वे हाथ-पाँव-भर नहीं, मस्तिष्क-धर भी हैं

शुक्ल-पक्ष के चाँद की तरह बढ़ती हुई

यादवजी की वे सन्तानें

किताबों के चन्द्रोदय से वंचित शाश्वत कृष्ण-पक्ष का अन्हार

फैला होगा जिनके मस्तिष्क में –

बलैक्बोर्ड से अपरिचित बलैकबोर्ड !

– ज्ञानेन्द्रपति .

 

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