पुरी के जगन्नाथ शबर आदिवासियों के पास थे । पुरी के राजा ने उनसे कहा कि वे जगन्नाथ को उन्हें दे दें। साबरों ने इन्कार कर दिया । पुरी की राजा का एक मन्त्री शबर लोगों के राज में जा कर बसा , वहाँ की राज-कन्या से ब्याह रचाया और तब जगन्नाथजी को माँग कर पुरी में बसाया गया। यह समझौता हुआ कि साल में एक माह जगन्नाथ की सेवा-टहल शबर ही करेंगे । जिस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा बनाई जाती है उसकी तलाश आज भी साबर ही करते हैं । यह परम्परा आज भी चली आ रही है । जगन्नाथ मन्दिर से जुड़ी ऐसी तमाम कथायें और परम्पराये मन्दिर की मांदरा – पंजी (पंजिका) में दर्ज हैं । इस बार के ओड़िशा प्रवास में हम पुरी से आ रहे हैं यह जानने के बाद मेरी ९३ वर्षीय मौसी अन्नपूर्णा महाराणा ने पंजी के बारे में तथा इस पंजी में दर्ज कुछ कहानियाँ हमें सुनाई । कहानियाँ सुनाने की उनकी इस अद्भुत क्षमता का लाभ हमें बचपन से मिलता आया है । अपनी आत्मकथा के लिए उन्हें ओड़िशा राज्य साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । स्वतंत्रता-समर में वानर-सेना में संगठन से उनकी सक्रियता शुरु हुई फिर १९३० से १९४२ के बीच की कई जेल-यात्राओं का लाभ उन्हें मिला । स्वयं ’पण्डों के जगन्नाथ’ मन्दिर में नहीं जातीं क्योंकि गांधी और विनोबा को मंदिर में नहीं जाने दिया गया । इन दोनों को जाने नहीं दिया गया क्योंकि इनके साथ दलित मन्दिर-प्रवेश करते।
कांची की राज कन्या अपरूपा थी । पुरी के राजा ने राजदूत भेज कर उससे विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। कांची के राजा ने यह कह कर प्रस्ताव नामंजूर कर दिया कि पुरी का राजा तो मेहतर है , झाड़ू लगाता है । कांची के राजा के मन्त्री ने रथ यात्रा के सामने पुरी के राजा को झाड़ू लगाते देखा था।
पुरी के राजा ने तय किया कि वह कांची पर आक्रमण करेगा। राजा ने अपने आराध्य देवता से प्रार्थना की कि वे इस युद्ध में उसका साथ दें । कहा जाता है कि जगन्नाथ और बलभद्र ने भी राजा का साथ दिया । मन्दिर में खुदे एक शिल्प में दोनों भाइयों को घोड़ों पर सवार दिखाया भी गया है । श्यामवर्णी जगन्नाथ और गौर बलभद्र । दोनों भाई जब पुरी के निकट मानिक पटना पहुंचे तब उन्हें प्यास लगी । वहां एक बुढ़िया से उन्होंने पानी माँगा । बुढ़िया ने पानी के बजाए उन्हें दही दिया। इस इन भाइयों की पास चूँकि पैसे नहीं थे इसलिए जगन्नाथ ने उसे अपनी अँगूठी दे दी । वृद्धा का नाम मनिका था। गांव का नाम इन्हीं के नाम से मानिक पटना पड़ा । मानिक पटना का दही आज भी प्रसिद्ध है ।
कांची में हुए युद्ध में पुरी नरेश की सेना पराजित हो रही थी । जगन्नाथ – बलभद्र भी हार गये। जगन्नाथ के ३६ सेवकों ने तब युद्ध की अनुमति मांगी। यह सेवक खण्डायत ( क्षत्रीय ) न थे इसलिए युद्ध में भाग नहीं ले रहे थे। कोई सिर की मालिश करने वाला ,कोई हाथ दबाने वाला , कोई चरणकमलरजधूलिदास-ऐसे ही कुल ३६ सेवक ! राजा ने इन ३६ सेवकों को युद्ध करने की इजाजत दे दी । इन्होंने राजा को जिता दिया ।
कांची की राज-कन्या को लेकर पुरी राजा लौटे । रास्ते में मानिक पटना में उसी बुढ़िया ने जगन्नाथ की दी हुई अंगूठी राजा को देकर पैसे पा लिए ।
पुरी में धूम-धाम से जश्न मनाया गया । तमाम योद्धाओं को राजा ने सम्मानित किया । उन ३६ सेवकों ने भी राजा से कहा कि हमें भी सम्मानित किया जाए । राजा ने मन्त्री से पूछा कि इन्हें कैसे सम्मानित किया जाए ? मन्त्री ने सलाह दी कि उन्हें खण्डायत घोषित किया जाए । राजा ने ऐसा ही किया । वे तेली-खण्डायत , नाऊ खण्डायत जैसे नामों से जाने गये ।
राजा ने अपने मन्त्री को कहा कि विजित राज-कन्या को ले जाये तथा योग्यतम मेहतर देख कर उसका ब्याह दे दे । मन्त्री भारी सोच में पड़ गया । आखिरकार उसने रथयात्रा के सामने जब राजा झाड़ू लगा रहा था उसी समय राजा के गले में जयमाल डालने के लिए कहा । इस प्रकार योग्यतम मेहतर से कांची की राज-कन्या पद्मावती का विवाह सम्पन्न हुआ।
कुछ पंक्तियां याद आ गईं…
मुझे इस दुनिया की गंदगी साफ़ करने के लिए
एक मेहतर चाहिए
और वो मुझसे बेहतर चाहिए….
nahi suna tha yah kissa kabhi, jankari badhi.
aapki mausi ko salaam, jahan is umra me mandir bhagwan hi jyada acche lagte hai fir bhi ve apni us bat par kaayam hai.
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पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव
ravi kumar ne jo likha vahi yaad aaya tha.behtrin post.
I had heard this story from my Mausaji. He too was one of the great story tellers. Oh! those days.