औचक पहुँचे , उस दिन हमने
साँझ को शुरु होते देखा
चनमा सट्टी चौराहे पर की
उस चाय – दुकान में
ढलती साँझ हमारे पहुँचने तक
जो गहगह होती थी
अब जानता हूँ
उस चाय – दुकान की साँझ
बहुत पहले शुरु हो जाती है
दोपहर ढलते ही
तिपहरी के साथ
उस चाय – दुकान के भोजनावकाश को
समाप्त घोषित करता हुआ
उसका उधड़नीलरंग शटर उठ जाता है , नन्हें हाथों
पूरा नहीं , थोड़ा – सा
बमुश्किल हमारे घुटनों तक
लेकिन काफी उन तीन बच्चों के लिए
जो संझा के अग्रदूत हैं
( और सुबह के भी )
तनिक सिर झुकाकर अबाध उनकी आवाजाही
दुकनिया के भीतर – बाहर
कर्म – कुशल वे तीन नन्हें बच्चे
एक बच्चा – तनिक गुलथुल-सा
और दो बच्चियाँ भूरे केशोंवाली
एक मँझोली हथौड़ी से
बच्चा फोड़ता है कोयले
ऊँकड़ूँ बैठ
बच्चियों में जो बड़ी है , निहुर
एक टुटही झाड़ू से बुहारती है फर्श
साफ , बहुत साफ – झकाझक
दूसरी बच्ची इस बीच
सामान उठाती है धरती है
परात , पतीला , केतली , बोयाम
फिर धुँआ उठता है
देर तक
तब अँगीठी दहकती है
शाम जब बस जाती है
यादवजी की चाय – दुकान चुस्कियों और मुस्कियों से
भरी होती है
वे बच्चे तब नहीं दिखते हैं
वे बच्चे तब हमारे नेत्र-तल के नीचे होते हैं
वे पाँव हैं जिनके बल पर
अचल खड़ी भी वह दुकान चलती है
यादवजी की चाय – दुकान
बड़ी भोर से देर रात तक थिर न रहनेवाले
वे पाँव – जिनसे गुम गया है उनका गन्तव्य
अनथक कदमताल करते हुए जो मार्च कर रहे हैं
नन्हें सिपाहियों के पाँव
जो आगे बढ़कर जीत लेंगे
अपने पिता का निबुध स्वार्थ – समर
और आह ! हार जायेंगे
आखिरकार
वे हाथ-पाँव-भर नहीं, मस्तिष्क-धर भी हैं
शुक्ल-पक्ष के चाँद की तरह बढ़ती हुई
यादवजी की वे सन्तानें
किताबों के चन्द्रोदय से वंचित शाश्वत कृष्ण-पक्ष का अन्हार
फैला होगा जिनके मस्तिष्क में –
बलैक्बोर्ड से अपरिचित बलैकबोर्ड !
– ज्ञानेन्द्रपति .
बेचैन करने वाली,कुरेदने वाली तथा सामाजिक संस्थाओं एवं व्यवस्था पर सवाल उठाने वाली कविता . क्या वैश्वीकरण के पक्षकारों की निगाह इन ‘नन्हें सिपाहियों’ और ‘मंझोली हथौड़ी से कोयला तोड़ने वाले’ इन शिशुओं तक जाती है ?
क्या इन बच्चों के हिस्से ‘किताबों के चन्द्रोदय से वंचित शाश्वत कृष्ण-पक्ष का अन्हार’ ही आएगा . अनिवार्य प्राथमिक/माध्यमिक शिक्षा के सरकारी दावे क्या सिर्फ़ दावे ही हैं ?
बहुत से सवाल खड़े करती है यह कविता . अत्यंत जाग्रत और साधक कवि हैं ज्ञानेन्द्रपति .
प्रियंकर से सहमति.
कहाँ से खोजकर इतनी मर्मस्पर्शी कविताएँ ला रहे हैं ? इस विषय पर मैं भी एक श्रृंखला
लिख रही हूँ । शीघ्र ही पोस्ट करूँगी ।
घुघूती बासूती
विचलित करने वाली कविता ।आखिर ज्ञान जी जोहैं।साभार ,आप को अफलातून भाई ।
namahaste sir,
To me, the feel of this poem is like philosophy of truth.At times we succeed by loosing or vice versa.I feel good when i ralate this creation to karnkol(or tum soachte ho ek pal ke lie soachte ho kaash ye…..nahi tidde hote……….)..
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