इधर मैकाले उधर गांधी – गीजूभाई / सुनील

पिछले दिनों मुझे केरल में त्रिशूर के पास एक स्कूल में जाने का मौका मिला। देश में चल रहे स्कूलों से यह काफी अलग था। करीब पांच एकड़ जमीन में जंगल है, बगीचा है, खेत है और स्कूल भी है। कक्षाओं के लिए खुला शेड है जिस पर खपरैल या नारियल के पत्तों की छत है। बच्चे कक्षा में पढ़ने के अतिरिक्त खेत और बगीचे में भी काम करते हैं। मेरा स्वागत एक नारियल के पानी से किया गया और बाद में वहीं लगे केले मैंने खाए। स्कूल के बच्चों के साथ मेरी सभा का संचालन एक वरिष्ठ छात्रा ने किया। सबसे पहले छात्राओं के एक समूह ने एक गीत से स्वागत किया जो कई भारतीय भाषाओं में था। मैंने उनसे पूछा कि मैं हिन्दी में बोलूं या अंग्रेजी में, तो ज्यादा बच्चों ने हिन्दी के पक्ष में हाथ खड़े किए। इस स्कूल में चार भाषाएं पढ़ाई जाती हैं – मलयालम, हिन्दी, अंग्रेजी और अरबी। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। क्यों, मैंने पूछा तो स्कूल संचालक ने बताया कि वे केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं और उसमें मलयालम माध्यम का प्रावधान नहीं है। फिर भी वे तीसरी कक्षा तक मलयालम में पढ़ाते हैं। एक कारण शायद यह भी होगा कि पालक भी अंग्रे्जी माध्यम में शिक्षा चाहते हैं। फिर भी हिन्दी पर उनका बहुत आग्रह है । संचालक ने मुझसे कहा कि अच्छे हिन्दी शिक्षक खोजने में मैं कुछ मदद करुं। इस स्कूल का संचालन एक मुस्लिम दंपत्ति कर रहे हैं। किन्तु बच्चे सभी धर्मों के हैं और सभी धर्मों के प्रति आदर के भाव पर आग्रह है।

बच्चों की जागरुकता के स्तर से मैं काफी प्रभावित हुआ। मैंने उनसे पूछा कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं तो जबाव मिला कि अच्छे नागरिक और अच्छा इंसान। मुझे शंका हुई कि कहीं यह सिखाया हुआ जवाब तो नहीं है। किन्तु जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि ऐसा नहीं है। मेरे वक्तव्य के बाद उनके सवाल पूछने की बारी थी, तो एक ने पूछा, राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर अच्छी होने पर भी देश की हालत खराब क्यों है ? बाद में दो छात्राओं ने मुझसे देर तक बात की। वे इरोम शर्मिला के बारे में जानती थी। किन्तु क्या उत्तर-पूर्व से सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून हटाना उचित होगा, एक ने मुझसे पूछा। उत्तर-पूर्व, कश्मीर, माओवाद आदि पर फिर विस्तार से बात हुई।

इस स्कूल के बच्चों से मेरी पहली मुलाकात नर्मदा घाटी में नर्मदा बचाओ आंदोलन के 25 वर्ष पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में हुई। वे बच्चे खूब जोश से नारे लगा रहे थे, गीत गा रहे थे, लोगों से जाकर हिन्दी में बात कर रहे थे। सुबह झाडू से सफाई करते मैंने उन्होंने देखा। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें यहां घूमने में मजा आ रहा है, तो एक लड़की ने कहा कि हम घूमने नहीं, सीखने आए हैं। इसके पहले वे अयोध्या के मुद्दे पर उत्तर भारत में आयोजित एक सद्भाव यात्रा में भी शरीक हुए थे। दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उनका पांच दिन का शिविर केरल की एक नदी किनारे लगने वाला है, जो औद्योगिक प्रदूषण से प्रभावित हो रही है। केरल में ही प्लाचीमाड़ा में कोका-कोला के संयंत्र के खिलाफ संघर्ष से भी ये बच्चे अच्छी तरह परिचित है। उन्होंने बताया कि वे कोका-कोला, पेप्सी आदि शीतल पेय नहीं पीते हैं। इस स्कूल का नाम ‘सल-सबील ग्रीन स्कूल’ है और केरल में बह रही पर्यावरण चेतना की बयार का यह एक हिस्सा है। सल-सबील अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है – ‘‘स्वर्ग का झरना’’। इस स्कूल के नए बन रहे भवन का शिलान्यास मेधा पाटकर ने किया था। स्कूल के संचालक श्री हुसैन ‘जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ के केरल प्रांत के संयोजक है। वे बच्चों की शिक्षा को जन संघर्षों, पर्यावरण चेतना, सामाजिक सरोकारों, नैतिक मूल्यों और धार्मिक सद्भाव से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

इस स्कूल में 10वीं कक्षा तक पढ़ाई होती है। साधनों के अभाव के कारण कोई छात्रावास नहीं है। बच्चे आसपास के इलाके से प्रतिदिन स्कूल बस से आते हैं। फीस तीन-चार सौ रु. महीने है, जो उस इलाके के साधारण परिवारों की हैसियत के अंदर है। इस मामले में यह स्कूल अन्य वैकल्पिक स्कूलों से अलग है। ‘ऋषिवैली’ जैसे स्कूलों ने भी वैकल्पिक शिक्षा के अच्छे प्रयोग किए हैं, किन्तु वे काफी महंगे हैं। कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन, अरोबिन्दो आश्रम आदि द्वारा संचालित अच्छे स्कूल अधिकतर संपन्न उच्च वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित हो गए हैं। दयानन्द एंग्लों वैदिक सोसायटी के डीएवी स्कूल व कॉलेज भी आम ढर्रे में ढल गए हैं और व्यवसायीकरण की गिरफ्त में आ रहे हैं। संघ परिवार द्वारा संचालित सरस्वती विद्यालयों में साम्प्रदायिकता और संकीर्णता की सोच का खतरा तो है ही, व्यवसायिकता का प्रवेश वहां भी हो गया है।

शिक्षा के मामले में आज यही सवाल सबसे बड़ा सवाल है। देश का हर स्कूल सल-सबील स्कूल कैसे बने ? अच्छी शिक्षा त्रिशूर जिले के उस इलाके के तीन-चार सौ बच्चों तक सीमित न रहकर देश के सारे 30 करोड़ बच्चों को कैसे मिले ? अच्छी शिक्षा से आशय अच्छे नंबर लाने और आईआईटियन या आईएएस तैयार करने से नहीं है। अच्छी शिक्षा से मतलब आनंददायक, रुचिकर, बहुमुखी, बहुआयामी शिक्षा से है जो महज नौकरशाह या सायबर-कुली तैयार करने के बजाय बच्चे की विविध प्रतिभाओं का विकास करते हुए जिम्मेदार नागरिक और अच्छे इंसान तैयार करे।

आज हमारे स्कूलों में ठीक उल्टा होता है। पढ़ाई का मतलब सिर्फ रटना है और रटना कभी भी आनंददायक नहीं हो सकता है। इंग्लिश मीडियम की होड़ में यह कष्ट और बढ़ता जा रहा है,क्योंकि एक विदेशी भाषा में रटना ज्यादा मुश्किल ह। बस्ते का बोझ बढ़ता जा रहा है। ऊपर से बच्चों को स्कूल के अलावा ट्यूशन व कोचिंग में और जाना पड़ता है। मां-बाप द्वारा प्रतिस्पर्धा की मशीन में बच्चों को छोटी उमर से ही धकेल दिया जाता है और उनका बचपन छीन लिया जाता है।

स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चे इतने प्रफुल्लित होते हैं और घर की तरफ इस तरह दौड़ लगाते हैं मानो जेल से छूटे हों। शिक्षा खेल-खेल में क्यों न हो, गीत-नाच-कहानी-नाटक के साथ क्यों न हो, सैर-सपाटे के साथ क्यों न हो, इस पर कभी सोचा ही नहीं गया। आखिर भूगोल की पढ़ाई नदियों व पहाड़ों की सैर करते हुए, अर्थशास्त्र की पढ़ाई खेतो-बाजारों में घूमते हुए तथा विज्ञान की पढ़ाई कुदरत तथा आसपास के वातावरण में प्रयोग करते हुए ही सबसे अच्छी हो सकती है। किन्तु हमने पूरी पढ़ाई को परिवेश व समाज से पूरी तरह काटकर बंद कमरों में किताबी ज्ञान को रटने तक सीमित कर दिया है। ‘तारे जमीं पर’ फिल्म के नन्हें नायक की तरह यदि बच्चा उबाऊ कक्षा के ब्लेक बोर्ड की तरफ न देखकर खिड़की के बाहर चिड़िया या तितली को देखने लगता है, तो वह डांट और मार खाता है, जबकि दोष तो इस शिक्षा व्यवस्था का होता है।

एक बच्चे के अंदर कई तरह की प्रतिभाएं हो सकती हैं। वह एक अच्छा खिलाड़ी, कलाकार, नेता, किसान, मछुआरा, कारीगर या मिस्त्री हो सकता या सकती है। समाज में इन सबकी जरुरत है। किन्तु हमारी शिक्षा व्यवस्था इन सारी प्रतिभाओं व कौशलों को नजरअंदाज करके महज किताबी ज्ञान को रटने और उसे परीक्षा भवन में ढाई-तीन घंटे में उगल देने की प्रतिभा व क्षमता को ही पहचानती है और पुरुस्कृत करती है। अच्छी पढ़ाई के नाम पर भी महज ज्यादा से ज्यादा जानकारी को बच्चे के दिमाग में ठूंस देने की कोशिश होती है। इस चक्कर में देश के करोड़ों बच्चों की ज्यादा उपयोगी विविध प्रतिभाओं का तिरस्कार व उपेक्षा होती जाती है। यह उनके साथ अन्याय है और देश की प्रगति में भी बड़ी बाधा है।

इस तरह की शिक्षा का सामाजिक सरोकारों, नैतिक मूल्यों और देश की जरुरतों से अलगाव व कटाव भी स्वाभाविक है। अच्छे अंक लेकर ऊंची कमाई वाली नौकरी पाना इसका एकमात्र लक्ष्य और सफलता की कसौटी बन गया है। ऐसी शिक्षा के सफल उत्पाद स्व-केन्द्रित, स्वार्थी और भ्रष्ट बनेंगे ही। पिछले कुछ समय से शिक्षा में व्यवसायीकरण तथा बाजारीकरण की जो आंधी चली है, उसने इन विकृतियों को और बढ़ाया है। सरकार ने भी शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर ‘मानव संसाधन मंत्रालय’ कर दिया है। तब से घोषित रुप से शिक्षा अच्छे नागरिक व अच्छे इंसान तैयार करने और लोकतांत्रिक आजाद भारत के नवनिर्माण का लक्ष्य छोड़कर महज वैश्विक पूंजीवादी बाजार के लिए संसाधन तैयार करने का माध्यम बन गई है। अफसोस की बात है कि इसके बावजूद देश के कई मूर्धन्य शिक्षाशास्त्री इसी की सेवा में जुटे हैं।

भारतीय शिक्षा की यह दयनीय हालत कई अन्य मामलों की तरह औपनिवेशिक विरासत के कारण है। इसकी नींव लॉर्ड मैकाले ने अंगरेज साम्राज्य की जरुरत के हिसाब से डाली थी। उन्हें महज बाबू और हुक्म का पालन करने वाले कारिन्दों की जरुरत थी। इसलिए रचनात्मकता, मौलिकता, जिज्ञासा, विविधता आदि से रहित इस षिक्षा में सिर्फ अक्षरज्ञान, कागजीज्ञान और अनुकरण पर जोर दिया गया था। आजादी के आंदोलन में इसे आमूल-चूल बदलने की बात बराबर होती थी। महात्मा गांधी ने ‘नई तालीम’ के कई प्रयोग किए थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांति निकेतन की स्थापना की थी। गिजुभाई ने नई तरह की शिक्षा और बाल मनोविज्ञान पर अद्भुत पुस्तकें लिखी थी। उनकी लघु उपन्यासनुमा पुस्तक ‘‘दिवास्वप्न’’ ने तो कई लोगों को नए ढंग की शिक्षा का सपना देखने के लिए प्रेरित किया है। किन्तु ये पुस्तकें गुजराती में थी, अंगरेजी में नहीं, इसलिए आज भी भारत के शिक्षा- के साथ बाजारु भी बनती जा रही है।

मैकाले एक तरफ है, गांधी-गिजुभाई दूसरी तरफ है। देश किधर जाएगा, इसका फैसला आने वाले समय में होगा। इस चयन में सल-सबील जैसे स्कूल हमें मददगार होंगे। खतरा यही है कि पूरी व्यवस्था में बदलाव के बजाय वे एक टापू और अपवाद बनकर न रह जाएं।

( ईमेल -sjpsunil@gmail.com )

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लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।

– सुनील, ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)

पिन कोड: 461 111

मोबाईल 09425040452

3 टिप्पणियां

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3 responses to “इधर मैकाले उधर गांधी – गीजूभाई / सुनील

  1. दिवास्वप्न पढ़ा है। हिन्दी अनुवाद तो है, बहुत सस्ते में। सायबर-कुली शब्द अच्छा है। शिक्षा का मतलब तो मुझे समझ में नहीं आता कि गाँधी से लेकर सारे वैज्ञानिक तक प्रायोगिक और खुशी और मनोरंजन के साथ शिक्षा की वकालत करते रहे लेकिन, कोई राज्य या सरकार बदलते क्यों नहीं।

  2. Anil Menon

    I go through your interesting article , its very nice and your analysis on purpose of education to each children is very clear and hope in coming days in entire India we can see school like trichur

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