तब बनारस से तटीय ओडिशा जाने के दो रास्ते थे । यह रेल आरक्षण के कम्प्यूटर युग से बहुत पहले की बात है । बनारस से पुरी के लिए एक डिब्बा आसानसोल तक जाता था । वहाँ से कट कर खडगपुर,फिर हावडा पुरी एक्सप्रेस में लग कर पुरी । इस डिब्बे में आप बनारस से सीधे कटक – पुरी का आरक्षण करा सकते थे। दूसरा रास्ता हावडा हो कर जाने का था ।आप दिन में कोलकाता के रिश्तेदारों से मिलकर शाम को पुरी की गाड़ी पकड़ सकते थे । गाड़ियां समय पर रहीं और कोलकाता न रुकना हुआ तो सुबह ही हैदराबाद एक्सप्रेस मिलती थी,जिसे बाद में ईस्ट कोस्ट एक्सप्रेस कहा जाने लगा । हावडा से कटक रात भर की यात्रा के लिए बनारस से हावडा तार (टेलिग्राम )भेजा जाता था। तार भेजने की एक सन्दर्भ संख्या आपको दे दी जाती।उस संख्या को बता कर हावडा स्टेशन पर आगे के आरक्षण का पता करना होता ।
एक बार बा और दादुल (मेरे नाना ) के साथ मैं हावडा होकर कटक जा रहा था । हावडा स्टेशन पर तार के अनुसार आरक्षण की बाबत कोई खबर नहीं मिली । हम कोलकाता शहर गये और शाम को गाड़ी पकड़ने लौटे। टीटी लोगों की खल-नियत से हमें दादुल के साथ दो बार पूरे प्लेटफॉर्म का चक्कर लगाना पड़ा था । मुझे याद नहीं कि आरक्षण मिला था अथवा नहीं लेकिन कटक स्टेशन पर उतरकर बा ने शिकायत पुस्तिका में विधिवत शिकायत की थी और उसकी एक नकल भी हासिल की थी । घर पहुंच कर एक रेल मन्त्री को भी एक शिकायती पत्र लिख दिया था। शायद गुलजारीलाल नन्दा रेल मन्त्री थे ।
इस घटना को शायद मैं भूल जाता यदि कुछ महीने बाद रेल महकमे का एक खत बा को न मिला होता । पत्र में लिखा था , ’अनेक प्रया्सों के बावजूद हम आप लोगों की परेशानी के लिए जिम्मेदार कर्मचारी को चिह्नित नहीं कर सके हैं । हावडा स्टेशन पर किसके कारण आपको प्लैटफॉर्म के चक्कर लगाने पड़े यह जानने के लिए उस दिन ड्यूटी पर रहे समस्त टीटियों की परेड कराई जाएगी । आप से सविनय निवेदन है कि उनमें से दोषी व्यक्ति को पहचानने के लिए उपस्थित हों ।’ बहरहाल माताराम ने ऐसा न करने का निश्चय किया ।
रेलवे में काफ़ी बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार होते हैं तथा बड़े बजट के कारण इस विभाग का मन्त्री बनने के लिए तगड़ी स्पर्धा होती है । रेलवे के बड़े ठेके हासिल करने के लिए कम्पनियां और माफिया प्रयत्नशील रहते हैं और वे ही ये ठेके पाते हैं । इसके बावजूद यदि आपने शिकायत पुस्तिका हासिल कर ली, बाजाफ़्ता यात्री या संभावित यात्री होने के प्रमाण (टिकट संख्या )का उल्लेख कर दिया तब अक्सर कार्रवाई होती है । हर २४ घण्टे में शिकायत एक एक प्रति विभागीय अधिकारी के पास चली जाती है । स्टेशन मास्टर शिकायत – पुस्तिका देने में अक्सर ना-नुकुर करते हैं लेकिन यह अंदाज लगने के बाद कि शिकायत पुस्तिका न देने की भी शिकायत हो सकती है , वे शिकायत पुस्तिका दे देते हैं । इन शिकायतों के बारे में की गई कार्रवाइयों की बाबत मेरा तजुर्बा सकारात्मक रहा है । दिक्कत यह है कि बहुत कम लोगों को शिकायत लखने की आदत है।शायद उन्हें कार्रवाई का भरोसा ही नहीं होता।
टीटी परेड के इस प्रकरण का मुझ पर काफ़ी प्रभाव पड़ा था । रेल महकमे के दुराचार की शिकायतें दर्ज कराने में मुझे एक प्रकार की प्रोत्साहनकारी उर्जा मिली थी । यह उर्जा संकोचरोधी है ।
मैंने खुद पहली शिकायत रेल आरक्षण के गैर-कम्प्यूटर युग में कराई थी । विभिन्न रेल-मार्गों के लिए अलग-अलग खिड़कियां हुआ करती थीं । एक बार मुझे एक ही खिड़की से दो आरक्षण करवाने थे । दोनों पूर्व दिशा के । भाभी की माएके(मुजफ़्फ़रपुर) के लिए उनका तथा ननिहाल (ओड़िशा)जाने के लिए मां के साथ अपना । मैंने जब एक टिकट कराने के बाद दूसरा फार्म दिया तो उस किरानी ने बहुत उर्रठई से कहा , ’क्या करते हो ? दलाल हो क्या ? ’ मैंने विश्वविद्यालय का परिचय पत्र खिडकी से घुसेड कर उसके मुँह पर दिखाया । फिर प्लेटफार्म पर जाकर लिखित शिकायत की। लौट कर आया। पुन: लाईन में लग कर दूसरा टिकट कराया । उस बाबू का नाम मुझे नहीं पता था इसलिए समय और खिड़की संख्या शिकायत में दर्ज करा दिया था ।
कई महीने बाद एक बार मैंने जब आरक्षण फार्म खिड़की पर दिया तब उसे पढ़कर बुकिंग क्लर्क ने अत्यन्त विनम्र स्वर में पूछा ,’ क्या आप ही अफ़लातून हैं ? क्या आप राजघाट रहा करते थे ? आप तक पहुँचने के लिए मैंने वकार भाई को पकड़ा था । मु्झे आरोप-पत्र दिया गया था और दो-दो जांच समितियों का सामना करना पड़ा। ” मैंने भी कहा ,’ काशी विश्वविद्यालय के छात्र को दलाल समझेंगे तो इतना तो झेलना ही होगा ।” वकार भाई मेरे मोहल्ले के थे और वह भी बुकिंग क्लर्क थे।
रेल आरक्षण के कम्प्यूटर युग में एक बार मुझे टेलिस्कोपिक एडवान्टेज नहीं मिला । मुझे बनारस से नागपुर जाना है । यदि मुझे दो टुकड़ों में – बनारस – इटारसी तथा इटारसी नागपुर का टिकट दिया जाएगा तो वह एक सीधे टिकट बनारस-नागपुर से काफ़ी मंहगा होगा(इसे अंग्रेजी में टेलिस्कोपिक एडवान्टेज कहते हैं)। मुझे यह अन्दाज था कि मेरी मांग के अनुरूप कम्प्यूटर सीधा टिकट दे सकता है तथा यह लड़का कुछ टेढ़े कम्प्यूटर-निर्देशों को भूल गया है या देने से बच रहा है । मैंने इस असुविधा और नुकसान की शिकायत की । कुछ महीने बाद यह बुकिंग क्लर्क मेरे परिचितों के साथ माफ़ी मांगने घर पहुंच गये ।
तिरुअनंतपुरम – राजधानी एक्सप्रेस की खि्ड़कियों पर लगाये गये विज्ञापनों की बाबत मैंने गाड़ी में ही शिकायत की थी। इस पर अलग पोस्ट लिखी थी । इस पर भी कार्रवाई का पत्र आ गया है और कार्रवाई भी हुई है।
मुझे मधु दण्दवते के जमाने में रेल महकमे द्वारा अपनाये गये गो नारों ने बहुत आकर्षित किया था – Delay breeds corruption तथा Be Indian ,Buy Indian . दूसरा वाला लगाने की हिम्मत तो अब किसी सरकार की न होगी। समय से आरक्षण न कराने (Delay) के कारण जब भी बिना कन्फ़र्म टिकट के यात्रा की है तब-तन टीटियों को घूस न देने के संकल्प की रक्षा कर सका हूं । दरअसल इसमें मेरी बहादुरी नहीं रही । लोकनायक जयप्रकाश के समक्ष कसम खाई थी कि घूस नहीं देंगे-यह बता देने के बाद आज तक किसी ने अतिरिक्त पैसा नहीं लिया । फिर भी डिब्बे के अन्य यात्रियों से घूस लेना बन्द नहीं होता। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में माहौल बना है और जागृति आई है तब घूस न देने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए। यह संकल्प यदि नहीं जुड़ा तब इस जागृति की धार भोथरी हो जाएगी ।