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लौटी महारानी की दंडी / अनिल सद्गोपाल

लौटी महारानी की दंडी

ब्रिटिश महारानी की दंडी थामे,
दागे सलामी इंडिया की बंदूकें ,
चमक-धमक राष्ट्रमंडल खेल आत हैं।
छिपाए भिखमंगे, उजाड़ी बस्तियां,
भूखे बच्चे, टूटी सड़कें, चौपट स्कूल,
फिरंगी यूनीवर्सिटी की नौटंकी बुलात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
हांगकांग और फ्रांस से फटाफट
इम्पोर्ट किए खुशबूदार संडास हैं,
होश किसे, आधी जनता मैदान जात है।
हर चौराहे पर लगा घंटों ट्रेफिक जाम,
ऊपर भी फ्लाईओवर, नीचे भी फ्लाईओवर,
दक्कन कोरिया से आई मेट्रो सरासर भगात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
बनाया सवाल इंडिया तेरी नाक का,
किसकी नाक, किसका सवाल?
फिक्र किसे शिक्षा, सेहत, खुशहाली की,
182 मुल्कों में भारत 134 नंबर पर गिनात है।
हुआ बवाल, मची हुड़दंग संसद में,
राजपाट करनेवालों में भयी खूब बंदरबाट है,
गुलामी डायन खाए जात है।
फूंके 700 करोड़ रुपए दलित के ,
टपकी सरकारी तिजोरी, टपके स्टेडियम,
लुढ़के ओवरब्रिज, मजदूर मारे जात हैं।
हल्ला बोला खेलों का,
हुए कारपोरेट पूंजीपति मालामाल हैं,
जाने काहे के हमरे खिलाड़ी पसीना बहात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
मस्ती बारह दिन की, बारह दिन का तमाशा,
एक लाख करोड़ रुपए का टिकिट कटाया।
कच्छ से आया, कोहिमा से आया,
पैसा आया लक्षद्वीप और लद्दाख से,
अस्सी फीसदी करें गुजर-बसर 20 रुपल्ली में,
फिर भी सब कुछ दिल्ली में लुटाए जात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
मचा शोर साफ-सफाई का,
निकले सांप, चरमराए पलंग, डरे खिलाड़ी,
सुनकर फटकार फ़ेनल-हूपर की,
प्रधानमंत्री कैबिनेट की बैठक बुलात हैं।
चप्पे-चप्पे पर चाक-चौबंद फौजी-सिपाही,
ताकें इधर-उधर, टट्टी-पेशाब के छटपटात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
करें सांठगांठ राजनेता, मीडिया और पूंजीपति,
टाला मसला भ्रष्टाचार का, टाल ली अयोध्या भी,
टाल नहीं सके आतंक के साये के
अरबों डालर की विदेशी तकनीक मंगात हैं।
हर हिंदुस्तानी बायोमेट्रिक और लेज़र के घेरे में,
नीचे राडार, ऊपर मिग और मिसाइल उड़ात हैं,
गुलामी डायन खाए जात है।
एनजीओ खुश, खु्श खिलाड़ी, खु्श कलमाड़ी,
खान-पान का ठेका अमरीकी मल्टीशनल कं,
पिज्ज़ा पर सजाए गोलगप्पे, जी भर शैंपेन पिलात हैं।
छिड़ गई बहस उद्घाटन की,
करे लंदन का प्रिंस या भारत की राष्ट्रपति?
झुका इंडिया, महारानी का संदेश प्रिंस लेकर आत है,
गुलामी डायन खाए जात है।
आखिर बच गई इज्जत हमरी,
कहें मनम¨हनवा देख¨ नौ फीसदी का खेल,
सेंसेक्स 22,000 की छलांग लगाए जात है।
काहे गिनत हो स्वर्ण पदक भारत के,
पट तो गया शेयर बाजार सोने-चांदी से,
सुपरपावर बनने का ख्वाब इंडिया दिखात है,
गुलामी डायन खाए जात है।

(राष्ट्रमंडल खेल के एक उद्घाटन के एक दिन पहले, गांधी जयंती पर यह सवाल पूछते हुए कि आज यदि गांधीजी ज़िंदा होते तो क्या करते।)

– डॉ.अनिल सद्गोपाल                        02 अक्तूबर 2010
ई-8/29, सहकार नगर
भोपाल 462 039
फोन- (0755) 256-0438/ म¨मो. – 09425600637

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खेल और व्यापार : अशोक सेक्सरिया

प्राय: सभी देशों में सरकार , उद्योग , जनसंचार के माध्यम ( मीडिया ) और सेना ने प्रतियोगात्मक खेलों के प्रति जनमानस में जबरदस्त आकर्षण पैदा करने की कोशिश की है । अगर हम एशियाई खेलों के आयोजन के सिलसिले में इन चारों की भूमिका के बारे में सोचने की कोशिश करें तो साफ़ नज़र आयेगा कि ये चारों मिलकर एशियाई खेलों का उन्माद पैदा कर रहे हैं । यह एक मिलीभगत है । सरकार की भूमिका तो इतनी स्पष्ट है कि उसकी चर्चा ही व्यर्थ है । उद्योगों यानी कम्पनियों को इन खेलों के माध्यम से अपना धुंआधार विज्ञापन करने और अनुपयोगी और विलासितापूर्ण वस्तुओं का बाजार तैयार करने का एक बहुत बड़ा  अवसर दिया जा रहा है । ( यह एक भयानक चीज है इससे सरकार और उद्योगपतियों का गठबंधन इस तरह मजबूत हो रहा है कि इससे उद्योगपतियों की मुनाफ़ाखोरी इस तरह बढ़ेगी जिससे आवश्यक वस्तुओं की कीमतों का बढ़ना और अनावश्यक वस्तुओं का निर्माण बढ़ना अनिवार्य है )। खेलों के तावीज (मस्कॉट,शुभंकर ) का व्यापार हम देख रहे हैं । अप्पू के छापे की कमीज का कपड़ा और गंजियां दूर दूर तक पहुंच रहे हैं। बड़े शहरों में अभी ही घरेलू नौकरों के बदन पर , मालिकों के साहबजादों के बदन से उतरी हुई अप्पू छाप की गंजी दिखाई देने लगी है । पनवाड़ियों और बस्तियों के शोहदों के बदन पर भी यह दिखती है । इसे शायद इन्दिरा गांधी एशियाई खेलों में गरीब की हिस्सेदारी मानेंगी ।

कम्पनियों की विज्ञापनबाजी का आलम तो यह है कि ऐसा लगता है कि हमने अमरीका जैसा स्तर प्राप्त कर लिया है । धनी देशों में खेल प्रतियोगितायें आजकल ज्यादातर बड़ी कम्पनियों के सौजन्य से होती हैं , जो इन्हें विज्ञापन का माध्यम बनाती हैं । इंगलैंड में पिछले साल सिगरेट कंपनियों के सौजन्य से खेल प्रतियोगिता का प्रबल विरोध करते हुए दस प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्रियों ने जिनमें आठ रायल मेडिकल कालेज के अध्यक्ष थे , खेल मंत्री को पत्र लिखा था । इस पत्र पर टिप्पणी करते हुए ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने लिखा : ’  अगर सरकार प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्रियों की मांग (कंपनियों पर प्रतिबन्ध) स्वीकार नहीं करती तो , इसके दो ही अर्थ होंगे – या तो सिगरेट पीने से स्वास्थ्य बिगड़ने की बात गलत है या सरकार ने जनस्वास्थ्य के प्रति अपनी जिम्मेवारी को तिलांजलि दे दी है ” जब बीसवीं सदी के चिकित्साशास्त्र का इतिहास लिखा जायेगा तो ऐसी अनुमति देने वाली ( सिगरेट कंपनियों द्वारा प्रतियोगिता आयोजित करने की अनुमति) सरकार के सदस्य लोगों की बीमारी बढ़ाने के अपराध में कटघरे में खड़े किए जायेंगे । ” हमारे देश में सिगरेट कंपनियां सिर्फ़ खेलों का ही नहीं , नृत्य-संगीत के कार्यक्रम यहां तक कि चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन कर रही हैं । हमारे देश में चाकलेट खिलाकर बच्चों के दांत नष्त करने वाली कैडबरी कंपनी को बच्चों की खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन करने की अनुमति मिली हुई है । कहने का मतलब यह है कि एशियाई खेलों से इस प्रवृत्ति को भयानक रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है । उद्योगपतियों से सरकार का यह गठबंधन घोषणा करता है कि सरकार कैम्पा-कोला पिलाना कर्तव्य मानती है , जल पिलाना नहीं ।

जनसंचार के माध्यमों रेडियो, टेलिविजन ,अखबारों – द्वारा जो शोर मचाया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि उनका काम  सिरफ़ सरकार और उद्योगपतियों के लिए जन मानस में एशियाई खेलों के प्रति उन्माद को बढ़ाना है । वे बार-बार यही दुहरा रहे हैं कि एशियाई खेलों के स्टेडियम विश्व कोटि के हैं और जिन चीजों में विश्व कोटि हासिल नहीं की जा सकी है उनका आयात कर लिया गया है । यह किस कीमत पर हुआ है , स्टेडियम आदि बनाने में किस प्रकार तमाम श्रम-कानूनों का उल्लंघन हुआ है और निर्माणस्थलों पर मजदूरों का कितना भयंकर शोषण हुआ है , इस बारे में इक्के-दुक्के लेख छपे हैं ( रेडियो,टेलिविजन के अनुसार तो भारत में शोषण नाम की किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं है ) और वे कुछ वैसे ही हैं जैसे किसी आधुनिका को लिपस्टिक-पाउडर खरीदने के बाद गाड़ी में बैठते – बैठते एकाएक याद आ जाए कि उसे जीरा भी खरीदना था और वह ड्राईवर को जीरा लाने भेज  दे ।

टेलीविजन में एशियाई खेलों को लेकर जो कार्यक्रम आते हैं उनमें एक डी मेलो साहब खिलाड़ियों , आयोजनकर्ताओं और विदेशी विशेषज्ञों से पूछते हैं कि जिन सुविधाओं की व्यवस्था की गै है वे विश्वस्तर हैं न ! और, उन्हें हर बार जवाब मिलता है कि सब विश्वकोटि का है । इस विश्वकोटि का एक ही मतलब है कि हमारा शासकवर्ग देशवासियों को दु:ख-दैन्य के महासमुद्र में डुबाकर अपने लिये विश्वकोटि का रहन -सहन ही नहीं विश्वकोटि का मनोरंजन भी भी चाहता है ।

एशियाई खेलों में सेना की महत्वपूर्ण भूमिका है । उसके सहयोग के बिना सरकार इतने बड़े आयोजन की कल्पना भी नहीं कर सकती थी । लेकिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ओलंपिक खेल और एशियाई खेल जैसे आयोजनों की मूलप्रकृति ( उग्र राष्ट्रीयतावाद , हार-जीत,सैनिक किस्म की रस्में , शक्ति-प्रदर्शन आदि ) सैनिक होती हैं और वे जनमानस में सैन्यशक्ति के प्रति सम्मान और आकर्षण पैदा करते हैं । तथाकथित कम्युनिस्ट देशों में तो सेना के लिए योग्य जवान प्राप्त करना खेल-कूद की नीति का एक बड़ा उद्देश्य होता है । हमारे देश में एशियाई खेलों के आमन्त्रण के आयोजन से खेल-कूद के क्षेत्र में सेना की भूमिका और बढ़ेगी । अ.भा. खेल कूद के अध्यक्ष के रूप में रिटायर सेनाध्यक्षों – जनरल करियप्पा , कुमारमंगलम , साम मानेकशा – को बैठाने की परम्परा तो बन ही चुकी है ।

सरकारीकरण , व्यापारीकरण , सैन्यीकरण और प्रोपैगैंडा का वास्तविक खेलों से कोई वास्ता नहीं होता और न होना चाहिए , लेकिन एशियाई खेलों का इनके सिवाय किसी अन्य चीज से वास्ता है ही नहीं । उल्लास , उमंग और सहजता से इनका कोई रिश्ता नहीं ।

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आरंभ में प्रश्न उठाया गया था कि – एशियाई खेल क्या वास्तव में खेल हैं ? हमने देखा उनमें खेल का मूल तत्त्व ही नहीं है । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती , वह एक और प्रश्न खड़ा कर जाती है – हमारे देश में खेल कैसे हों ?

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हिटलर और खेल ]

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