इस सिक्के ने लाजमीतौर पर पाठकों का ध्यान खींचा । हमारे देश में साक्षरता की कमी और अल्प-साक्षरता के कारण जिनके हाथ यह सिक्का लगा उनमें से कइयों ने इसे डेढ़ रुपए का सिक्का माना ।
लावण्या जी, यह सिक्का नकली नहीं है और न ही तृटिपूर्ण है , फिर भी अनूठा तो है ही ।तृटिपूर्ण होने पर इसका संग्रह-मूल्य अत्यधिक हो जाता। चिट्ठे पढ़ने वाले किसी अन्य पाठक ने ऐसा सिक्का पा कर इस पर ध्यान नहीं दिया । दो टिप्पणीकर्ता बन्धु जो सिक्कों के बारे में विशेष रुचि रखते हैं – रंजन और संजय बेंगाणी ने विशिष्ट ज्ञान प्रकट किया।दोनों ने काफ़ी सही कहा। बन्धु रंजन ,पहली भारतीय रेल मुम्बई से ठाणे चली थी और इसके डेढ़ सौ साल पूरे होने में अभी देर है । कितनी देर है ?
भारतीय डाक के 150 वर्ष सन 2004 में पूरे हुए , जिस उपलक्ष्य में यह सिक्का जारी हुआ था। सिक्के का दूसरा पहलू नीचे दे रहा हूँ ।