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एक नयी खेल नीति : अशोक सेक्सरिया

हमारे-जैसे गरीब देश में खेलों का स्वरूप यह होना चाहिए कि उनमें प्रतियोगिता का तत्त्व कम-से-कम रहें, संगीत और नृत्य के तत्त्व अधिक रहें , कम-से-कम उपकरण हों और ऐसी सहजता हो कि अधिकाधिक लोग खेलने की ओर प्रवृत्त हों । इस बारे में गंभीरता से सोचना आवश्यक है । १९३० के दशक में बंगाल में पश्चिमी खेलों के विकल्प के रूप में एक आन्दोलन , व्रतचारी आंदोलन उभरा था । यह संगीत , नृत्य और लोकखेलों के आधार पर व्यायाम व खेलों की रचना करने का आन्दोलन था । देश की गुलामी के कारण इसमें राष्ट्रीयता का भाव प्रबल था पर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा बच्चों और युवकों को कुन्दजेहन करनेवाला और उनमें साम्प्रदायिक विद्वेष भरनेवाला आंदोलन न था । गांधीजी और रवीन्द्रनाथ ने इसे प्रोत्साहित किया था । बंगाल में आजादी के पहले तक व्रतचारी आंदोलन काफ़ी फैला , कितने ही स्कूलों में व्रतचारी खेल शुरु हुए ; पर आजादी के बाद वह सूखता चला गया ।

हमारे देश में खेलों को पश्चिमी देशों की नकल में संगठित रूप देने की कोशिश करना उपभोक्तावादी संस्कृति को ही पनपाएगा । सरकार को इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि लोगों को खाना-पीना मिले , उनका स्वास्थ्य उन्नत हो , बच्चों को खेलने के लिए खुली जगहें उपलब्ध हों । लोग या बच्चे क्या खेलें यह सरकार  तय न करे । कंपनियों के खेल-जगत में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया जाए ।

हमारी दुनिया में बहुत-से ऐसे खेल हैं जिनमें प्रतियोगिता का तत्व नहीं होता और वे प्रेम व मैत्री को बढ़ाते हैं । ऐसे खेल विलीन होते जा रहे हैं और इनके बारे में हमे ज्यादा पता भी नहीं है । मसलन पश्चिमी सुमात्रा के देशज खेलों में विजय एक बुरी चीज मानी जाती है , उनमें प्रतिस्पर्धा का कोई तत्व ही नहीं होता । एक पश्चिमी लेखक ने लिखा है : सुमात्रा के लोगों का खेल संबंधी दृष्टिकोण सबको पराजित करने वाले और और अपने को श्रेष्ठ साबित करने वाले पश्चिमी दृष्टिकोण से एकदम उलटा है । लेकिन सुमात्रा में आज ऐसे खेलों का खात्मा हो रहा है और कराटे व अन्य फैशनेबल सामरिक खेलों का उदय हो रहा है । सुकर्ण-शासन के ओलंपिक में भाग लेने के निर्णय से यह स्थिति और भी बिगड़ गयी । ओलिम्पिक-खेलों का तीसरी दुनिया के मुल्कों पर नुकसानदेह असर हुआ है । सुमात्रा-जैसे देश अब ओलिम्पिक खेलों में पदक न जीत पाने के कारण हीन-भाव से ग्रस्त हो गये हैं ।

यह बेतरतीब लेख समाप्त करते हुए यह लिखना आवश्यक लगता है कि अब शासक-वर्ग की वासना १९९२ में ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करने की होगी । एशियाई खेलों के स्टेडियमों का निर्माण ऐसी निष्ठुर उर्जा के कारण हुआ जिसके प्रयोग की शर्त ही देश के गरीबों की उपेक्षा थी । भारत जैसे टेक्नोलोजी में पिछड़े देश में इतने कम समय में स्टेडियमों का निर्माण श्रम-कानूनों का उल्लंघन कर दो लाख मजदूरों को दिन-रात खटाकर ही संभव हो पाया – ये स्टेडियम एक प्रकार के दास-श्रम की मीनारें हैं । १९९२ में यदि हमारे यहाँ ओलिम्पिक हुए तो हिटलर और स्टालिन के यातना-और-श्रम-शिबिरों-जैसी परिस्थितियों में ही निर्माण कार्य होगा ।

स्रोत : सामयिक वार्ता , नवम्बर , १९८२

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क्या एशियाई खेल वास्तव में खेल हैं ?

हिटलर और खेल

खेल और व्यापार

सरकार और खेल

साम्यवादी रूस और खेल

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सरकार और खेल : अशोक सेक्सरिया

१९८२ के एशियाई खेल , १९५२ में साढ़े छ: लाख रु. की लागत से आयोजित प्रथम एशियाई खेलों की ही परिणति हैं । प्रथम एशियाई खेलों द्वारा अंगरेजों के राज में खेलों का जो ढाँचा बना था उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया गया । खेलों के बारे में आजाद देश में कोई नीति नहीं बनाई गई । नतीजा यह हुआ कि हमारे देश में खेल कैसे हों  , यह कभी बहस का मुद्दा ही नहीं बना । एक ही लक्ष्य बनता गया कि अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में किसी भी प्रकार से ज्यादा-से-ज्यादा सफलता प्राप्त की जाये (खेलों में भारत की हार होने पर संसद में हमेशा हल्ला हुआ है ) । इस कारण देशवासियों की जरूरत के रूप में खेलों की कल्पना नहीं हुई है और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगितायें जीतने के लिए खेलों को ज्यादा-से-ज्यादा संगठित रूप देने , प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने और सफ़ल राष्ट्रों की तकनीकी की नकल करने की अधकचरी कोशिशें चालू हुईं । देहाती खेल-कूद प्रतियोगिता शुरु की गई तो उद्देश्य देहातों से विश्व विजेता प्राप्त करना था , देहात के लोगों के लिए ख्ले के अवसर जुटाना नहीं । जैसे यह मान लिया जाता है कि गरीबों को रोटी से मतलब है , लोकतंत्र से नहीं , वैसे ही मान लिया गया कि गरीबों को खेल की कोई जरूरत नहीं है। ऐसे में खेलों का सारा तामझाम ( विकास कत्तई नहीं कहेंगे ) , विशिष्ट वर्ग की अन्तरराष्ट्रीय सफलता प्राप्त करने की वासना मिटाने और बढ़ती आबादी को बम्बइया फिल्मों जैसा एक और घटिया उत्तेजना भरा मनोरंजन प्रदान करने के लिए खड़ा होता गया । इसी का नतीजा यह है कि खेलों में औद्योगिक घरानों का प्रवेश हो रहा है , उनकी टीमें बन रही हैं , उनके सौजन्य से प्रतियोगितायें हो रही हैं और गावस्कर-जैसे पेशेवर लखपति खिलाड़ियों का उदय हो रहा है ।

सरकार कम्युनिस्ट देशों की तरह खेलों का संगठन करने में असमर्थता और अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल करने की वासना के चलते ( यह शासक वर्गों की सम्रुद्ध राष्ट्रों के सम्पन्न लोगों – जैसा रहन – सहन प्राप्त करने की वासना का दूसरा रूप है) पिछले ७-८ वर्षों से खेलों के बारे में उपभोक्तावादी मनोवृत्ति को बढ़ा रही है । इसके पीछे शहरी आबादी को बहलाकर समस्याओं से बेखबर करने की साजिश  के साथ यह ’ महान विचार ’ भी काम कर रहा है कि खेलों के प्रति उन्माद बढ़ाने से ( रात के तीन बजे तक विश्वकप फुटबाल के मैच टेलिविजन पर दिखाये जाते हैं ) देश में विश्व विजेता खिलाड़ी पैदा हो सकेंगे ।

जारी : अगली किश्त : साम्यवादी रूस और खेल

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खेल और व्यापार ,

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