हमारे-जैसे गरीब देश में खेलों का स्वरूप यह होना चाहिए कि उनमें प्रतियोगिता का तत्त्व कम-से-कम रहें, संगीत और नृत्य के तत्त्व अधिक रहें , कम-से-कम उपकरण हों और ऐसी सहजता हो कि अधिकाधिक लोग खेलने की ओर प्रवृत्त हों । इस बारे में गंभीरता से सोचना आवश्यक है । १९३० के दशक में बंगाल में पश्चिमी खेलों के विकल्प के रूप में एक आन्दोलन , व्रतचारी आंदोलन उभरा था । यह संगीत , नृत्य और लोकखेलों के आधार पर व्यायाम व खेलों की रचना करने का आन्दोलन था । देश की गुलामी के कारण इसमें राष्ट्रीयता का भाव प्रबल था पर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा बच्चों और युवकों को कुन्दजेहन करनेवाला और उनमें साम्प्रदायिक विद्वेष भरनेवाला आंदोलन न था । गांधीजी और रवीन्द्रनाथ ने इसे प्रोत्साहित किया था । बंगाल में आजादी के पहले तक व्रतचारी आंदोलन काफ़ी फैला , कितने ही स्कूलों में व्रतचारी खेल शुरु हुए ; पर आजादी के बाद वह सूखता चला गया ।
हमारे देश में खेलों को पश्चिमी देशों की नकल में संगठित रूप देने की कोशिश करना उपभोक्तावादी संस्कृति को ही पनपाएगा । सरकार को इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि लोगों को खाना-पीना मिले , उनका स्वास्थ्य उन्नत हो , बच्चों को खेलने के लिए खुली जगहें उपलब्ध हों । लोग या बच्चे क्या खेलें यह सरकार तय न करे । कंपनियों के खेल-जगत में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया जाए ।
हमारी दुनिया में बहुत-से ऐसे खेल हैं जिनमें प्रतियोगिता का तत्व नहीं होता और वे प्रेम व मैत्री को बढ़ाते हैं । ऐसे खेल विलीन होते जा रहे हैं और इनके बारे में हमे ज्यादा पता भी नहीं है । मसलन पश्चिमी सुमात्रा के देशज खेलों में विजय एक बुरी चीज मानी जाती है , उनमें प्रतिस्पर्धा का कोई तत्व ही नहीं होता । एक पश्चिमी लेखक ने लिखा है : सुमात्रा के लोगों का खेल संबंधी दृष्टिकोण सबको पराजित करने वाले और और अपने को श्रेष्ठ साबित करने वाले पश्चिमी दृष्टिकोण से एकदम उलटा है । लेकिन सुमात्रा में आज ऐसे खेलों का खात्मा हो रहा है और कराटे व अन्य फैशनेबल सामरिक खेलों का उदय हो रहा है । सुकर्ण-शासन के ओलंपिक में भाग लेने के निर्णय से यह स्थिति और भी बिगड़ गयी । ओलिम्पिक-खेलों का तीसरी दुनिया के मुल्कों पर नुकसानदेह असर हुआ है । सुमात्रा-जैसे देश अब ओलिम्पिक खेलों में पदक न जीत पाने के कारण हीन-भाव से ग्रस्त हो गये हैं ।
यह बेतरतीब लेख समाप्त करते हुए यह लिखना आवश्यक लगता है कि अब शासक-वर्ग की वासना १९९२ में ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करने की होगी । एशियाई खेलों के स्टेडियमों का निर्माण ऐसी निष्ठुर उर्जा के कारण हुआ जिसके प्रयोग की शर्त ही देश के गरीबों की उपेक्षा थी । भारत जैसे टेक्नोलोजी में पिछड़े देश में इतने कम समय में स्टेडियमों का निर्माण श्रम-कानूनों का उल्लंघन कर दो लाख मजदूरों को दिन-रात खटाकर ही संभव हो पाया – ये स्टेडियम एक प्रकार के दास-श्रम की मीनारें हैं । १९९२ में यदि हमारे यहाँ ओलिम्पिक हुए तो हिटलर और स्टालिन के यातना-और-श्रम-शिबिरों-जैसी परिस्थितियों में ही निर्माण कार्य होगा ।
स्रोत : सामयिक वार्ता , नवम्बर , १९८२
पिछले भाग :
क्या एशियाई खेल वास्तव में खेल हैं ?