घने जंगल के बीच बसे एक गांव की सुमन 12 वीं कक्षा में पढ़ रही है। वह बोरी अभयारण्य के अंदर के काकड़ी गांव की है। पढने के लिए केसला आई है, जो मध्यप्रदेश के हो्शंगाबाद जिले का एक विकासखंड मुख्यालय है। यहां वह एक गर्ल्स शॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रही है। लेकिन उसके गांव पर सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के कारण विस्थापन की तलवार लटक रही है। इस कारण सुमन अपनी पढ़ाई पूरी लगन के साथ नहीं कर पा रही है। उसका आधा मन अपने गांव में लगा रहता है। वह सोचती है कि उनके गांव को भी हटना पड़ेगा, तब क्या होगा? उसके जैसी कईऔर लड़कियां हैं। उनका यह डर अकारण भी नहीं है। उनके पड़ोसी गांव धांई और बोरी को हटाया जा चुका है। इसी प्रकार बोरी अभयारण्य के अंदर के कई गांव है, जहां बच्चों का भविष्य अधर में लटका हुआ है। सुपलई गांव की 11 वीं कक्षा में पढ़ने वाली कविता का भी भविष्य तय नहीं है।

जय सिंह ,काकड़ी
होशंगागाबाद जिले में वन्यप्राणियों के लिए तीन सुरक्षित पार्क बनाए गए है- सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, बोरी अभयारण्य और पचमढ़ी अभयारण्य। तीनों को मिलाकर सतपुड़ा टाईगर रिजर्व बनाया गया है। तीनों के अंदर कुल मिलाकर आदिवासियों के लगभग 75 गांव हैं और इतने ही गांव बाहर सीमा से लगे हुए है। इनमें से दो गांवों धांई और बोरी को हटाया जा चुका है। अन्य गांवों पर विस्थापन की तलवार लटक रही है।
कहने को तो हमारे संविधान में बच्चों को बड़ों के समान अधिकार दिए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र का समझौता है। उनके हित में कई और कानून है जिनमें बच्चों के सर्वोच्च हित सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान हैं। लेकिन उनसे विस्थापन जैसे बडे निर्णयों के बारे में उनसे कोई बातचीत नहीं की जाती है। ऐसे बड़े निर्णयों से बच्चों की जिंदगी बदल जाती है। उनका बचपन छिन जाता है। विस्थापन के पहले न तो उनसे कोई राय ली जाती और न ही उन्हें कुछ बताया जाता। जो भी पुनर्वास आदि की योजनाएं बनती हैं, उन्हें ध्यान में नहीं रखा जाता। उनकी इच्छाओं और रुचियों को कोई तरजीह नहीं दी जाती। सुमन से यह पूछने पर कि क्या वह अपने पुराने गांव से हटकर नई जगह जाना चाहती है? उसने जवाब दिया- बिल्कुल नहीं। हम वहीं उम्दा हैं, वहां किसी भी प्रकार की दिक्कत नहीं है। वहां का हरा-भरा जंगल और स्वच्छंद ठंडा वातावरण हमें कहां मिलेगा?

वि्स्थापन से सहमी छात्रायें
वह कहती है हमें अपने गांव में बेरोकटोक घूमना-फिरना अच्छा लगता है। वहां की हरियाली भाती है। वहां अपनी सहेलियों के साथ जंगल जाना अच्छा लगता है। वहां आजादी है, अपनी जिंदगी में किसी का दखल नहीं है। वहां पानी की कोई कमी नहीं है। अब हमें पता नहीं, नई जगह पर यह सब मिलेगा या नहीं ? सुमन यूंही यह सब बातें नहीं कहती है, उसने अपने पड़ोसी गांव जो हट चुके हैं उसके बारे में इधर-उधर से काफी सुन रखा है। इसी वर्ष 2009 में विस्थापित हुए बोरी की 10 वीं कक्षा में पढ़नेवाली श्रीदेवी का कहना है उसे नई जगह पर बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है। यहां नदी-नाले, जंगल, पहाड़ नहीं है। और वह आजादी नहीं है, जैसी पुराने गांव में थी। यहां नए-नए लोगों से सामना करना पड़ता है। हमें असुरक्षा महसूस होती है। सुमन को पता है कि विस्थापित गांव धांई और बोरी की महिलाएं अब नई जगह पर रोजगार के अभाव में जलाउ लकड़ी का गट्ठा सिर पर पांच-सात दूर किलोमीटर बेचने के लिए आती है। यह काम उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। सुमन के पिता जयसिंह है जो जनपद सदस्य (बी डी सी) भी हैं। वे इस मसले पर कभी-कभार बात करते रहते है। इन गांवों को जहां बसाया गया, वहां कई समस्याएं मौजूद हैं।
सुमन के पिता जयसिंह का कहना है कि उनका गांव खुशहाल है। वहां सब कुछ अपनी भोजन की जरूरत की चीजें खेतों में ही उगाते हैं सिर्फ नमक और कपड़ा को छोड़कर। वे अपने खेत में कोदो, कुटकी, धान, मक्का, तुअर (अरहर ), उड़द आदि उगाते हैं। अब तो वे काकड़ी नदी से पानी लेकर गेहूं भी बोते हैं। इसी प्रकार सब्जियों में आलू, गोभी, प्याज, लहसुन, मिर्ची, बैगन और हल्दी वगैरह लगाते हैं। सरसों के तेल के बदले मूंगफली का तेल ले लेते है। जंगल से मिलने वाली कई चीजों से भी भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है।
जंगल में रहने वाले आदिवासियों मेंभी पढ़ाई को लेकर जागरूकता बढ़ी है। इन गांवों में आपको अक्सर साईकिल पर सवार होकर स्कूल जाती लड़कियों की टोलियां दिख जाएंगी। यह साईकिल उनकी आजादी की प्रतीक भी बन गई है। लेकिन इधर सरकारी स्कूलों की हालत दिनोंदिन बिगड़ते जा रही है, जिनमें शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है। एक जमाना था कि पढ़ाई के बारे में लोगों की दिलचस्पी कम थी, आज स्थिति बदल चुकी है। केसला के जनपद उपाध्यक्ष फागराम कहते हैं अब आदिवासी लड़के-लड़कियां पढ़ना चाहते हैं लेकिन स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती।

केसला जनपद उपाध्यक्ष फागराम
जंगल के अंदर से विस्थापित होने वाले लोगों की अपेक्षा यह रहती है कि नई जगह जाकर उनके बच्चों का भविष्य बेहतर होगा, यह स्वाभाविक है। लेकिन देखने में यह आया है कि जंगल के बाहर विस्थापितों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकट हो जाती है। विस्थापन से उनके जीवन में भारी उथल-पुथल होती है और फिर से जमने में उन्हें काफी वक्त लगता है। सतपुड़ा अंचल में ऐसे कई गांव के लोग है जो आज बरसों बाद भी अपने जिंदा रहने के लिए बुनियादी सुविधाएं नही जुटा पाए है।
विस्थापन एक उलझी हुई प्रक्रिया है। इसका समाधान सिर्फ दूसरी जगह घर बनाने, नगद पैसा देने और कुछ जमीन का टुकड़ा देने मात्र से न्हीं हो जाता। जहां जाएंगे वहां पहले से लोग होंगे, वहां के जंगल और जमीन से उनकी जरूरतें पूरी होती है। नए लोग आने से प्राकृतिक संसाधनों पर जन दबाव बढ़ेगा। इसके अलावा, जैसे आज काकड़ी में खेती के लिए पर्याप्त पानी है। और वहां के लोग अपनी भोजन की जरूरतें खुद पूरी कर लेते हैं। क्या उन्हें नई जगह पर पानी मिलेगा? क्या उन्हें खेती करने लायक जमीन मिल पाएगी? यह सवाल तो अपनी जगह है ही, बच्चों की दृष्टि से उन्हें वहां क्या अनुकूल वातावरण मिलेगा? उनके पोषण और स्वास्थ्य की दृष्टि से वैसी ही चीजें मिलेगी, जो उन्हें जंगल से प्रचुर और नि:शुल्क मिल जाती हैं?
ग्रामीणों के अनुसार यहां बच्चों के लिए पोषण की कई चीजें जंगल में नि:शुल्क मिलती है। जैसे बेर, जामुन, अमरूद, मकोई, सीताफल, आम,शहद और कई तरह के फल-फूल सहज ही उपलब्ध होते है जिन्हें वे इधर-उधर ढूंढकर खाते रहते हैं। और जंगल से बाहर आने पर ये चीजें नहीं मिलेगी।
अब सुमन जैसी लड़कियों को यह समझ नहीं आ रहा है कि उनका भविष्य क्या है? उन्हें आगे कहां जाना है? नई जगह कैसी होगी? कैसा स्कूल होगा? कैसा आस-पड़ोस होगा? ऐसे अनगिनत सवाल उनके जेहन में उठ रहे हैं, जिनका जवाब कहीं से नहीं मिल पा रहा है। वे विस्थापन के डर से सहमी हुई हैं। क्या उनके सवालों का आकांक्षाओं का कोई जवाब है? क्या उनका स्वावलंबी गांव बच नहीं सकता?
– बाबा मायाराम ,
( बाबा मायाराम छत्तीसगढ़ और म.प्र. में लम्बे समय से पत्रकारिता करते आये हैं )