वाह ! गिलहरी क्या कहने !
धारीदार कोट पहने ।
पूंछ बड़ी-सी झबरैली,
काली – पीली – मटमैली ।
डाली – डाली फिरती है ,
नहीं फिसल कर गिरती है ॥
[ चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट की ‘नन्हे-मुन्नों के गीत’ से साभार ]
वाह ! गिलहरी क्या कहने !
धारीदार कोट पहने ।
पूंछ बड़ी-सी झबरैली,
काली – पीली – मटमैली ।
डाली – डाली फिरती है ,
नहीं फिसल कर गिरती है ॥
[ चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट की ‘नन्हे-मुन्नों के गीत’ से साभार ]
Filed under hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, poem
एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
……राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी – कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।
-अशोक चक्रधर
Filed under hindi, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, poem
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
– सुभद्रा कुमारी चौहान
इक दिन किसी मक्खी से यह कहने लगा मकड़ा
इस राह से होता है गुजर रोज तुम्हारा
लेकिन मेरी कुटिया की न जगी कभी किस्मत
भूले से कभी तुमने यहां पाँव न रखा
गैरों से न मिली तो कोई बात नहीं है
अपनों से मगर चाहिए यूं खिंच के न रहना
आओ जो मेरे घर में , तो इज्जत है यह मेरी
वह सामने सीढ़ी है , जो मंजूर हो आना
मक्खी ने सुनी बात मकड़े की तो बोली
हज़रत किसी नादां को दीजिएगा ये धोखा
इस जाल में मक्खी कभी आने की नहीं है
जो आपकी सीढ़ी पे चढ़ा , फिर नहीं उतरा
मकड़े ने कहा वाह ! फ़रेबी मुझे समझे
तुम-सा कोई नादान ज़माने में न होगा
मंजूर तुम्हारी मुझे खातिर थी वगरना
कुछ फायदा अपना तो मेरा इसमें नहीं था
उड़ती हुई आई हो खुदा जाने कहाँ से
ठहरो जो मेरे घर में तो है इसमें बुरा क्या ?
इस घर में कई तुमको दिखाने की हैं चीजें,
बाहर से नजर आती है छोटी-सी यह कुटिया
लटके हुए दरवाजों पे बारीक हैं परदे
दीवारों को आईनों से है मैंने सजाया
मेहमानों के आराम को हाज़िर हैं बिछौने
हर शख़्स को सामाँ यह मयस्सर नहीं होता
मक्खी ने कहा , खैर यह सब ठीक है लेकिन
मैं आपके घर आऊँ , यह उम्मीद न रखना
इन नर्म बिछौनों से ख़ुदा मुझको बचाये
सो जाए कोई इनपे तो फिर उठ नहीं सकता
मकड़े ने कहा दिल में , सुनी बात जो उसकी
फाँसूँ इसे किस तरह , यह कमबख़्त है दाना
सौ काम खुशामद से निकलते हैं जहाँ में
देखो जिसे दुनिया में , खुशामद का है बन्दा
यह सोच के मक्खी से कहा उसने बड़ी बी !
अल्लाह ने बख़्शा है बड़ा आपको रुतबा
होती है उसे आपकी सूरत से मुहब्बत
हो जिसने कभी एक नज़र आपको देखा
आँखें हैं कि हीरे की चमकती हुई कनियाँ
सर आपका अल्लाह ने कलग़ी से सजाया
ये हुस्न,ये पोशाक,ये खूबी , ये सफ़ाई
फिर इस पे कयामत है यह उड़ते हुए गाना
अल्लामा इक़बालफिर इसपे क़यामत है यह उड़ते हुए गाना
मक्खी ने सुनी जब ये खुशामद , तो पसीजी
बोली कि नहीं आपसे मुझको कोई खटका
इनकार की आदत को समझती हूँ बुरा मैं
सच यह है कि दिल तोड़ना अच्छा नहीं होता
यह बात कही और उड़ी अपनी जगह से
पास आई तो मकड़े ने उछलकर उसे पकड़ा
भूका था कई रोज़ से , अब हाथ जो आई
आराम से घर बैठ के , मक्खी को उड़ाया
– अल्लामा इक़बाल
[ वगरना = नहीं तो , सामाँ = सामान , दाना = समझदार , कनियाँ = टुकड़े ]
Filed under अल्लामा इकबाल, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, poem
इस फूल पे बैठी , कभी उस फूल पे बैठी
बतलाओ तो, क्या ढूँढ़ती है शहद की मक्खी ?
क्यों आती है , क्या काम है गुलजार में उसका ?
ये बात जो समझाओ तो समझें तुम्हे दाना
चहकारते फिरते हैं जो गुलशन में परिन्दे
क्या शहद की मक्खी की मुलाकात है उनसे ?
आशिक है ये कुमरी की , कि बुलबुल की है शैदा ?
या खींच के लाता है इसे सैर का चसका ?
दिल बाग़ की कलियों से तो अटका नहीं इसका ?
भाता है इसे उनके चटखने का तमाशा ?
सबज़े से है कुछ काम कि मतलब है सबा से ?
या प्यार है गुलशन के परिन्दों की सदा से ?
भाता है इसे फूल पे बुलबुल का चहकना ?
या सरो पे बैठे हुए कुमरी का ये गाना ?
पैग़ाम कोई लाती है बुलबुल ज़बानी ?
या कहती है ये फूल के कानों में कहानी ?
क्यों बाग में आती है , ये बतलाओ तो जानें ?
क्या कहने को आती है , ये समझाओ तो जानें ?
बेवजह तो आख़िर कोई आना नहीं इसका
होशियार है मक्खी इसे गाफ़िल न समझना
बेसूद नहीं , बाग़ में इस शौक से उड़ना
कुछ खेल में ये वक़्त गँवाती नहीं अपना
करती नहीं कुछ काम अगर अक़्ल तुम्हारी
हम तुमको बताते हैं , सुनो बात हमारी
कहते हैं जिसे शहद , वह एक तरह का रस है
आवारा इसी चीज़ की ख़ातिर ये मगस है
रखा है ख़ुदा ने उसे फूलों में छुपाकर
मक्खी उसे ले जाती है छत्ते में उड़ाकर
हर फूल से ये चूसती फिरती है उसी को
ये काम बड़ा है , इसे बेसूद न जानो
मक्खी ये नहीं है, कोई नेमत है ख़ुदा की
मिलता न हमें शहद , ये मक्खी जो न होती
इस शहद को फूलों से उड़ाती है ये मक्खी
इनसान की ये चीज़ ग़िज़ा भी है , दवा भी
कुव्वत है अगर इसमें तो है इसमें शिफ़ा भी
रखते हो अगर होश तो इस बात को समझो
तुम शहद की मक्खी की तरह इल्म को ढूँढ़ो
ये इल्म भी एक शहद है और शहद भी ऐसा
दुनिया में नहीं शहद कोई इससे मुसफ़्फ़ा
हर शहद से जो शहद है मीठा , वो यही है
करता है जो इनसान को दाना , वो यही है
ये अक़्ल के आईने को देता है सफ़ाई
ये शहद है इनसाँ की , वो मक्खी की कमाई
सच समझो तो इनसान की अजमता है इसी से
इस ख़ाक के पुतले को सँवारा है इसी ने
फूलों की तरह अपनी किताबों को समझना
चसका हो अगर तुमको भी कुछ इल्म के रस का
– अल्लामा इकबाल
[ गुलज़ार = गुलशन ; फुलवारी , दाना = अक़्लमंद ;होशियार , कुमरी= एक चिड़िया, शैदा = आशिक , सबा = सुबह की हवा ,सदा= अवाज़ , सरो = एक सीधा छतनार पेड़ ; वनझाऊ , बेसूद = बेफ़ायदा ; बेमक़सद , मगस = मक्खी;शहद की मक्खी ,शिफ़ा= तन्दुरस्ती ; रोग से मुक्ति, मुसफ़्फ़ा = साफ़ – सुथरा ; स्वच्छ , अजमता = बड़ाई ;महानता ]
Filed under allama iqbal, अल्लामा इकबाल, hindi, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry
[ राल्फ वाल्डो एमर्सन ( १८०३ – १८८२ ) द्वारा अंग्रेजीमें लिखी एक प्रसिद्ध कविता ( फ़ेबल ) का अल्लामा इक़बाल द्वारा किया गया यह तर्जुमा है । मुझे उम्मीद है कि हिन्दी जानने वाले बच्चे इसे सीखेंगे और याद कर लेंगे । ]
[ गुरूर = घमंड , शुऊर = समझ – बूझ ( तमीज़ ) , बिसात = हैसियत , हिकमत = तत्वदर्शिता , मसलिहत ]
Filed under अल्लामा इकबाल, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, poem, rhyme
Filed under अल्लामा इकबाल, hindi, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, poem
[ बचपन में स्कूल में अल्लामा इकबाल की तीन कवितायें सीखी थीं | ‘जुगनू’ काफी पहले दे चुका हूँ , इसी चिट्ठे पर | ‘बच्चे की दुआ ‘ को आगाज़ में प्रस्तुत करूंगा , हालांकि तरन्नुम में जो क्लिप मिली है उसकी तर्ज जुदा है | आज यहाँ पेश है ‘परिंदे की फ़रियाद ‘ | उम्मीद है स्कूली बच्चों को यह सिखाई जाएगी | ]
परिंदे की फ़रियाद
आता है याद मुझको गुजरा हुआ ज़माना
वह बाग़ की बहारें , वह सबका चहचहाना
आज़ादियाँ कहां वह अपने घोंसले की
अपनी ख़ुशी से आना , अपनी से जाना
लगती है चोट दिल पे , आता है याद जिस दम
शबनम के आंसुओं पर कलियों का मुस्कुराना
वह प्यारी – प्यारी सूरत , वह कामिनी-सी मूरत
आबाद जिसके दम से था मेरा आशियाना*
आती नहीं सदायें* उसकी मेरी कफस* में
होती मेरी रिहाई ऐ काश ! मेरे बस में
क्या बदनसीब हूं मैं , घर को तरस रहा हूं
साथी तो हैं वतन में , मैं कैद में पडा हूं
आई बहार, कलियां फूलों की हंस रही हैं
मैं इस अंधेरे घर में किस्मत को रहा हूं
इस कैद का इलाही ! दुखड़ा किसे सुनाऊं
डर है यही कफस में मैं गम से मर न जाऊं
जब से चमन छुटा है यह हाल हो गया है
दिल गम को खा रहा है , गम दिल को खा रहा है
गाना इसे समझ के खुश हों न सुनने वाले
दुखते हुए दिलों की फ़रियाद यह सदा* है
आज़ाद मुझको कर दे ओ कैद करनेवाले !
मैं बेज़बां हूँ कैदी , तू छोड़कर दूआ ले
– अल्लामा इकबाल
[ आशियाना = घोंसला , सदाएं = आवाजें , कफस = पिंजरा , सदा = आवाज , बेज़बां =गूंगा ]
Filed under अल्लामा इकबाल, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry
[ मीनाक्षी पय्याडा के माता – पिता दोनों शुद्ध मलयाली हैं , यानी केरलवासी । उसकी माँ , केरल के कन्नूर जिले में केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका है इसलिए मीनाक्षी को अपने स्कूल ( केन्द्रीय विद्यालय) में हिन्दी पढ़ने का मौका मिला। मीनाक्षी को अब तक किसी हिन्दी भाषी राज्य की यात्रा का मौका नहीं मिला है । हमारे दल , समाजवादी जनपरिषद के हाल ही में धनबाद में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में मीनाक्षी के पिता हिन्दी में लिखी उसकी यह प्यारी सी कविता साथ लाये थे । – अफ़लातून ]
काले बादल
आओ बादल , काले बादल
बारिश हो कर आओ बादल
सरिता और सागर को भरो पानी से ।
मैं संकल्प करती हूँ
तुम्हारे साथ खेलने का ,
पर तुम आए तो नहीं ?
आओ बादल , तुम आसमान में घूमते फिरते
पर मेरे पास क्यों नहीं आते ?
तुम यहाँ आ कर देखो
कि ये बूँदें कितनी सुन्दर हैं ।
क्या मजा है आसमान में
तुम भी मन में करो विचार ।
आओ बादल , काले बादल ।
– मीनाक्षी पय्याडा ,
उम्र – १० वर्ष , कक्षा ५,
केन्द्रीय विद्यालय ,
’ चन्द्रकान्तम’ ,
पोस्ट- चोव्वा ,
जि. कन्नूर – ६
केरलम
Filed under hindi, hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry
आओ बच्चों खेल दिखायें
छुक-छुक करती रेल चलायें
सीटी दे कर सीट पे बैठो
एक-दूजे की पीठ पे बैठो
आगे-पीछे पीछे-आगे
लाइन से लेकिन कोई न भागे
सारी सीधी लाइन में चलना
आँखें दोनों मीचे रखना
बन्द आँखों से देखा जाये
आँख खुले तो कुछ ना पाये
आओ बच्चों रेल चलायें
सुनो रे बच्चों टिकट कटाओ
तुम लोग नहीं आओगे
तो रेलगाड़ी छूट जायेगी
यक ठणणणणण
यक ठणणणणण
भप भप भप भप
भप भप भप भप
भप भप भप भप
भप भप भप भप
भप भप भप भप
आओ सब लाइन में खड़े हो जाओ
मुन्नी तुम हो इंजन
डब्बू तुम हो कोयले का डब्बा
चुन्नू मुन्नू लीला शीला
सोहन मोहन जादो माधो
सब पैसेंजर
सब पैसेंजर
यक ठणणणणण
यक ठणणणणण
रेडी
एक दो
(भाँप की आवाज)
रेल गाड़ी रेल गाड़ी
(सीटी की आवाज)
रेल गाड़ी रेल गाड़ी
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
बीच वाले स्टेशन बोलें
रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक
धड़क-भड़क लोहे की सड़क
धड़क-भड़क लोहे की सड़क
यहाँ से वहाँ वहाँ से यहाँ
यहाँ से वहाँ वहाँ से वहाँ
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
फुलाये छाती पार कर जाती
बालू रेत आलू के खेत
बाजरा धान बुड्ढा किसान
हरा मैदाम मन्दिर मकान
चाय की दुकान
पुल पों (?) की डण्डी टीले पे झण्डी
पानी के कुण्ड पंछी के झुण्ड
झोपड़ी झाड़ी खेती बाड़ी
बादल धुआँ मोठ कुँवाँ
कुँवें के पीछे बाग़ बगीचे
धोबी का घाट मंगल की हाट
गाँव में मेला भीड़ झमेला
टूटी दिवार टट्टू सवार
रेल गाड़ी रेल गाड़ी
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
बीच वाले स्टेशन
बोलें
रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक
के झुण्ड
झोपड़ी झाड़ी खेती बाड़ी
बादल धुआँ मोठ कुँवाँ
कुँवें के पीछे बाग़ बगीचे
धोबी का घाट मंगल की हाट
गाँव में मेला भीड़ झमेला
टूटी दिवार टट्टू सवार
रेल गाड़ी रेल गाड़ी
छुक-छुक छुक-छुक
छुक-छुक छुक-छुक
बीच वाले स्टेशन बोलें
रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक
रुक-रुक
(सीटी की आवाज)
धरमपुर भरमपुर भरमपुर धरमपुर
मैंगलोर बैंगलोर बैंगलोर मैंगलोर
माण्डवा खाण्डवा खाण्डवा माण्डवा
रायपुर जयपुर जयपुर रायपुर
तालेगाँव मालेगाँव मालेगाँव तालेगाँव
बेल्लुर वेल्लुर वेल्लुर बेल्लुर
शोलापुर कोल्हापुर कोल्हापुर शोलापुर
हुक्कल डिण्डीगल डिण्डीगल हुक्कल
अमर्^त (?)
ऊंगोल निथिगोल निथिगोल ऊंगोल
कोरेगाँव गोरेगाँव गोरेगाँव कोरेगाँव
ममदाबाद अमदाबाद अमदाबाद ममदाबाद
शोल्लुर कोन्नुर शोल्लुर कोन्नुर
छुक-छुक छुक
छुक-छुक छुक
बीच वाले स्टेशन बोलें
रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक रुक-रुक
हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का एक गैर फिल्मी गीत मैंने उनकी चर्चा के साथ पहले प्रकाशित किया था । आज जो गीत/रचना यहाँ पेश है वह अशोक कुमार की आवाज में है । मेरी उम्र नौ बरस की थी जब यह फिल्म – आशीर्वाद बनी थी और उसी समय इसे देखा था। उसकी छाप धुँधली नहीं हुई । ‘शैशव’ द्वारा बच्चों के लिए पेश है । इसी फिल्म में ‘नानी की नाँव चली’ नामक रचना भी है । इन दोनों रचनाओं के बारे में विद्वत्जन कहते हैं कि यह समय के पहले रचे गए ‘रैप’ हैं । दूसरी रचना का नेट पर अता-पता कोई बता देता !
Filed under hindi poems, nursery rhymes , kids' poetry, rhyme