( हाल ही में एक मित्र से जब मैंने कहा कि घूस न देना भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में कितना आवश्यक और कारगर हथियार है तो लगा कि वे मुझे परम मूर्ख समझ रहे हैं । सोचा बचपने से अब तक के घूस वाली परिस्थिति के मुकाबले के कुछ किस्से याद करूँ । )
किसी समय की बात है उत्तर-प्रदेश में सरकारी नगर बस सेवा हुआ करती थी । मेरा अनुमान है कि कानपुर , आगरा,लखनऊ,इलाहाबाद,वाराणसी में तो यह सेवा थी ही । आम तौर पर हल्के पीले रंग की बसे जिन पर – ’दो या तीन बच्चे बस , डॉक्टर की सलाह मानिए ’ लिखा होता था। कई साल बाद यह ध्यान नारा बदल कर ’चुन्नी-मुन्नी फिर भी दो ’ हो गया,तीन से दो।
आमतौर पर बनारस की नगर बस मुगलसराय से बेनिया बाग एवं बसंत कॉलेज से विश्वविद्यालय के डे हॉस्टल इन दो मार्गों पर ये बसें चलती थी। बेनी नामक व्यक्ति ने अंग्रेजी का साथ दिया था इसलिए उसको असम्मानजनक बनाकर लोगों ने बेनिया बाग कहना शुरु किया – नतीजन यह नाम ही अधिकृत और औपचारिक हो गया । राम-लीला के दिनों में यानी अनंत चतुर्दशी (रावण जन्म) से विजय-दशमी के बाद भरत-मिलाप तक ’मेला-स्पेशल’ बस चलती थी – मैदागिन से रामनगर । गहरे-बाज इक्कों के मालिक स्पर्धा करते हुए , अपने इक्कों पर मोटर वाले हॉर्न और लाईट लगाये रामनगर जाते थे। इन बनारसी इक्कों पर बेढब बनारसी ने जोरदार निबन्ध लिखा था । साइकिल से लीला देखने वालों की एक अलग जमात हुआ करती है । इस मौके के लिए ओवरहॉलिंग कराके चमचमाती साइकिलें-हैंडिल की दोनों मुठियों के निकट पीतल की कटोरी वाली घन्टियां , लोहे के कडे जिनमें लाठी फँसा दी जाती,पीढ़ा रखने की जगह और अंगोछे में लिपटा रामचरितमानस का गुटका ।
बहरहाल ,दरजा चार में मुझे सिटी बस से अकेले मैदागिन से साधना केन्द्र (सर्वोदय परिसर) तक आने की इजाजत मिल चुकी थी। बच्चों की टिकट दस नये पैसे की हुआ करती थी। पतली-सी (कम चौड़ी) किन्तु लम्बी टिकटें सफेद-पीली-गुलाबी-हरें रंगों की , जिस पर सभी स्टॉपों के नाम छपे होते थे। तब एक ,दो,तीन,पाँच,दस,बीस,पचीस नये पैसों के सिक्के भी चला करते थे । मैंने कंडक्टर को दस नए दिए और उसने मुझे तीन पैसे लौटा दिए । सोचा फायदा हुआ है , बा बहुत खुश होगी । लिहाजा घर पहुँच कर उत्साहपूर्वक बा को बताया और बेमुरव्वत डँटाया । थोड़ी देर बाद बा ने समझाया भी – टिकट क्यों दी जाती है ,टिकट के पैसों से सवारियों को क्या-क्या लाभ होते हैं ? कंडक्टरों को तो वेतन मिलता है । टिकट न लेने पर सरकार का नुकसान होता है और चोरी के पैसे तुम दोनों ने बाँट लिए – सात नए(पैसे) कंडक्टर ने और तीन तुमने । बा काफ़ी परेशान-सी हो गई थी। वह साढ़े चौदह साल की उम्र में डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल में बाजफ्ता बन्दी के रूप में गिरफ्तार हुई थी ,दो साल जेल में रही थी। पढ़ाई – लिखाई वहीं बड़ी, बहन बुआ ,ताई और अपनी माँ के निर्देशन में । यूँ तो नमक सत्याग्रह के समय भी अपनी मां के साथ बा जेल गई थी । तब तीन साल की रही होगी ।मैं कुछ ग्रह , नक्षत्र और राशियों को आकाश में पहचान लेता हूँ तो बा के चिन्हवाने की बदौलत । दिन में तारे तो निकलते नहीं -सो स्कूल वाले कैसे जानें ?
पढ़ने – लिखने का गजब का शौक था उसे।लोगों को ढंग से चीन्ह लेने का माद्दा भी कूट-कूट कर भरा था । गुजराती से ओड़िया अनुवाद उसने पेशेवर ढंग से किए । भाई इंडियन एक्सप्रेस का बनारस में स्ट्रिंगर बना तब तार से स्टोरी भेजने के पहले माता राम को जरूर दिखा देता । हिन्दी और गुजराती भी अच्छा लिखती ।
आजमगढ़ में बच्चों का एक शिबिर करवा के आबिद सुर्ती नेशनल बुक ट्रस्ट के महापात्र साहब के साथ कुछ समय पहले बनारस पधारे थे। उनसे पता चला कि गुजराती के मशहूर उपन्यासकार पन्नालाल पटेल के उपन्यास का बा द्वारा ३०-४० साल पहले किया गए अनुवाद की पांडुलिपि को ’दाखिल दफ़्तर’ पाया तो उन्होंने उसे छपवाया । दिल्ली लौट कर मुझे तीन प्रतियां भेजी ।
ऐसी बा भाग्यवानों को ही मिलती हैं. आपको मिली यह आपका सौभाग्य. काश हम सबको भी घूस का विरोध सिखाने वाली एक बा मिली होती, सारे भारत को! तो शायद स्थिति अलग होती.
अद्भुत और बहुत प्रेरक माँ हैं।
तोहरे माई के बारे में पहिली बार एतना पता चलल। उनकरे स्मृति के प्रणाम
padha aur achcha laga. beniya bag, rajghat sab yad aya
Ba ko mera pranam. Ba ki god me mere bachpan ke char saal beete aur vo mere jeevan ke sabse sunahre din the. mai bahut bhagyashaali hun ki mujhe meri Ba ka bahut bahut pyar mila, abhi bhi kabhi kabhi Ba ka “tuku didi’ pukarna yaad a jata hai.