पीलीभीत से भाजपा प्रत्याशी वरुण गांधी का औपचारिक नाम फिरोज वरुण गांधी होने की चर्चा मैंने कल ही की थी । इस पोस्ट को उम्मीद से ज्यादा ’टीपें’ मिल गयी ।
एक विचारधारा विशेष के विद्वान ने कहा है –
उदहारण के लिए कई के नाम में राम है लेकिन वास्ता दूर तक नहीं…!
नाम में जिनके राम है उनका राम मन्दिर से दूर का वास्ता नहीं रहा है – यह भारतीय समाज का कितना कटु यथार्थ है ! उत्तर भारत की शूद्र जातियों में नाम के पीछे राम लगाने की परम्परा रही है। जैसे जगजीवन राम , कांशी राम । अपने नाम के साथ राम को जोड़े रखने वाले इन तबकों को लम्बे समय तक मन्दिरों में प्रवेश की मनाही थी । इनके मन्दिरों के पुजारी या महन्त होने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है ।
बहरहाल , तुलसीदास ’अधम ते अधम , अधम अति नारी’– शबरी को राम द्वारा कैसे आश्वस्त किया गया यह इस संवाद द्वारा बताते हैं :
शबरी : केहि विधि अस्तुति करहु तुम्हारी,अधम जाति मैं जड़मति धारी ।
अधम ते अधम अधम अति नारी , तिन्हिमय मैं मति-मन्द अधारी ॥
राम : कह रघुपति सुनु धामिनी बाता , मानहु एक भगति कर नाता ।
जाति – पाति कुल धर्म बड़ाई , धनबल परिजन गुन चतुराई ।
भगतिहीन नर सोहे कैसा , बिनु जल वारिधी देखी जैसा ॥
अपने नाम के साथ राम को लगा कर रखने वालों के भक्ति के नाते को नकारने वालों को इनका ’वास्ता दूर तक नहीं’ दिखाई देगा । गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों से ऐसे समूह को विशेष परेशानी रहती है :
परहित सरिस धरम नहि भाई , परपीड़ा सम नहि अधमाई ।
अधम -दर्शन पालन करने वाले इन लोगों के बारे में इसलिए कहना पड़ता है :
लेते हैं ये राम का नाम ,करते हैं रावण का काम ।
तभी तो कहते हैं अजी नाम में क्या रखा है… काम की बात कीजिये :)
अच्छा विश्लेषण किया है आपने.
Sundar post! Badhai.
हमारे कुमाऊं गढ़वाल के पारम्परिक समाज में तो जिसके नाम के आगे ‘राम’ लगा होता है, उसे बिना जाने-परखे ही हेय समझे जाने की मानसिकता बनी हुई है. हालांकि शहरी पढ़ा लिखा तबका इस बात को स्वीकार करने में झेंपता है पर सच यह है कि अगर कोई युवा किसी ‘राम’ के साथ अन्तर्जातीय विवाह कर लेता /लेती है तो उसके सामाजिक सम्बन्धों का ‘राम नाम सत्य” कर दिया जाता है.
आज भी बहुत सारे मन्दिर ऐसे हैं जिनमें ‘राम’ को प्रवेश करने की इजाज़त नहीं.
जय हो!
आज से आगे इस २१ वी सदी में हम यूं आगे बढें कि सिर्फ़ नाम ही चले, उसकी जाति, धर्म या कुल से कोई सरोकार नही रहे. क्या यह संभव है?
मेट्रोपोलिटियन शहरों में , नई पीधी में यह आ गया है. बदलाव हमारी पीढी से शुरु होना था.
आज हमारे यहां इलेक्शन है, और किसी एक दल नें दूसरे के उमीदवार(ब्राह्मण) की विरुद्ध एक एड दिया है, कि वह ब्राह्मण, राजपुत और वैश्य समाज के प्रति कितना दुश्मनी का बायस रखता है. आज भी हम किस समाज का चित्र दुनिया के सामने रखते हैं , जहां उमीदवार का चरित्र कोई माने नही रखता?
ज्यादा दूर क्यों जाएं – रामसेना को ही लें. काम रावणसेना से भी बदतर!
सही कहा…राम नाम अब विशिष्टता का सर्टिफिकेट नहीं रहा।
Sahi kaha hai aapne.
पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव