बापू की गोद में (१९) : आक्रमण का अहिंसक प्रतिकार

    सेवाग्राम में डाकघर खुल गया , तब हम मगनवाड़ी छोड़कर सेवाग्राम रहने गये थे । वहाँ हमारे लिए एक कुटिया बनायी गयी थी । यह कुटी बापू-कुटी के नजदीक थी । एक तरफ बा-कुटी , बीच में बापू – कुटी और दूसरी तरफ हमारी कुटी थी । बापू , बा और महादेवभाई की त्रिपुटी की मानो निशानी। हम लोगों की कुटी इतनी नजदीक थी और काका करीब सारा दिन बापू की कुटी में बिताते थे , तब भी मैं या मेरी माँ बापू की कुटी में बहुत ही कम जाते थे । बापू को व्यक्तिगत रूप से किसी प्रकार की तकलीफ न देने की हम तीनों की वृत्ति थी ।

    सन १९४२ में काका का काम दिन-ब-दिन बढ़ने लगा था। बहुत दफा काका दोपहर में आग्रहपूर्वक आराम लेने का प्रयत्न करते थे । अपने कमरे का दरवाजा बन्द करते हुए मुझे कहते थे , ‘ बाबला , मैं जरा आराम करने जा रहा हूँ। भले कोई राजा आ जाय , लेकिन मुझे जगाना नहीं ।’अपनी बात को फिर से दोहराते हुए कहते थे , ‘ अरे, प्रत्यक्ष यमराज आ जाय , तो भी उससे कहना कि जरा ठहर जा , काका आराम कर रहे हैं , इस समय दरवाजा नहीं खोलने दूँगा । ‘

    यमराज की बात में मुझे दिलचस्पी नहीं थी , इसलिए मैं उसके बदले पूछता था , ‘लेकिन काका,बापू आ जायँ तो ?’ इस प्रश्न से काका निरुत्तर हो जाते थे ।बापू उनके दरवाजे पर पहुँचे हैं और वे सो रहे हैं,यह कल्पना ही काका के लिए सम्भव नहीं थी ।

    घर की कोई भी बात ऐसी नहीं थी , जो काका या माँ मुझसे छिपा रखती हो। वैसे तो उन दोनों को आपस में बातचीत करने के लिए समय ही कम मिलता था ।नाश्ता करते समय या भोजन के समय जो कुछ बात होती होगी,वही उनकी बातचीत।वह भी खुल्लम्खुल्ला होती थी। आखिर तक काका को बापू की तरफ से सत्तर रुपये माहवार मिलते थे । इतने में घर का खर्च कैसे चलाया जाय , यह प्रश्न कई बार उठता था । कभी-कभी बहुत तंगी हो जाती , तब काका अखबार में लेख लिखकर घर-खर्च की कमी भर देते थे । कभी – कभी घर में कटौतियाँ करने का संकल्प किया जाता था । ऐसी चर्चाओं में काका और माँ मुझे भी शरीक करते थे । इससे मुझे लगता था कि घर चलाने में मेरा भी कुछ हिस्सा है । बीच-बीच में मैं भी ध्यान रखता था कि खेलते समय कहीं चड्डी फट न जाय। जेबखर्च जैसी कोई चीज मेरे लिए नहीं थी , और न कभी मुझे उसकी आवश्यकता ही प्रतीत हुई ।

    लेकिन एक दिन रात को मैंने काका और माँ को मुझसे छिपाकर बात करते हुए सुना । मुझे नींद लगी है , ऐसा मानकर वे बात कर रहे थे ।

    काका ने माँ से पूछा , ‘ आज बापू ने क्या कहा, सुना न ?’

    माँ ने कहा , ‘ क्यों? हम दोनों पास ही तो बैठे थे ।’

    काका, ‘ फिर तूने क्या सोचा ?’

    माँ , ‘ सोचना क्या है ? बापू जो कहते हैं , वैसा करना है । ‘

    काका , ‘ मरने की तैयारी है ? ‘

    माँ , ‘ तोप के मुँह में जाना है तो मरना पड़ेगा ही । लेकिन बाबला के सम्बन्ध में क्या सोचा है ? ‘

    चर्चा का विषय यह था : दूसरा विश्व-युद्ध शुरु हुआ , तब आजादी की लड़ाई के साथ-साथ परराष्ट्रों के आक्रमण का मुकाबला अहिंसक प्रतिकार के द्वारा किया जाय , ऐसी चर्चा चल पड़ी थी ।अंग्रेज यदि भारत को आजादी देंगे तो युद्ध में उनको सशस्त्र सहकार देने के पक्ष में कांग्रेस के कुछ नेता थे।बापू प्रारम्भ में मित्र-राष्ट्रों को अपना नैतिक समर्थन देने के पक्ष में थे। लेकिन बाद में उनका विचार बदल गया । हिटलर के आक्रमण के सामने पोलैंड ने शस्त्र उठाकर बहादुरी के साथ प्रतिकार करना शुरु किया , इसकी बापू ने प्रशंसा की थी । कायरता की अपेक्षा वीरों की हिंसा बापू अधिक पसन्द करते थे । लेकिन बापू अपने और अपने देश के लिए उससे भी ऊँची वीरता का यानी अहिंसक प्रतिकार के मार्ग का रास्ता सोच रहे थे ।

    जापानी सेना जब भारत की भूमि पर छिटपुट बम-वर्षा करने लगी और इम्फाल-कोहिमा तक उसकी सेना आगे बढ़ आयी , तब बापू ने इस सम्बन्ध में एक लेख लिखा था । मीराबहन के साथ उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था । मीराबहन उड़ीसा गयी हुई थीं।उन्होंने वहाँ से बापू को लिखा कि , ‘ जापानी सेना के उड़ीसा के समुद्र किनारे पर उतरने की सम्भावना है । ऐसी हालत में भारत के लोगों को वे क्या सलाह देंगे ? भारत का शासन बापू के हाथ में होता तो वे क्या करते ? ‘

    बापू ने दो पत्र लिखकर इसका जवाब देते हुए नि:शस्त्र प्रजा की ओर से तथा स्वेच्छापूर्वक सैन्य-विसर्जन करनेवाली सरकार की ओर से विदेशी आक्रमण का अहिंसक प्रतिकार किस तरह से हो सकता है , इस विषय में अपनी कल्पना तफसील से बतायी थी। परराष्ट्रों के आक्रमण का अहिंसक प्रतिकार करने की बापू की कल्पना को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है ।आक्रमण के पहले , आक्रमण के समय में और आक्रमण के बाद । आक्रमण के पहले शुभेच्छा , भ्रातृभाव , सेवा और प्रेम का प्रति-आक्रमण करके हमलावरों को आने से ही रोका जाय ; आक्रमण हो जाने पर अहिंसक प्रतिकार की दृष्टि से अहिंसक सेना के सिपाही तोपों के मुँह में अपना बलिदान दें ; फिर भी आक्रमण देश पर हावी हो जाय तो देश की सारी प्रजा उसका अहिंसक असहकार या बहिष्कार या ऐसा ही कोई प्रतिकार करे , यह बापू की योजना थी ।

    इस योजना के अनुसार विदेशी आक्रमण की तोपों के सामने अपना बलिदान देने के लिए भारत में ऐसी अहिंसक सेना प्राप्त हो सकेगी या नहीं , यह प्रश्न था । बापू ने कहा था कि ऐसे एक हजार भी सैनिक मिलें तो वे आक्रामकों का अहिंसक प्रतिकार करने को तैयार हैं । उस दिन दोपहर को आश्रमवासियों की सभा बुलाकर बापू ने यह बात उनके सामने रखी थी। इसी सिलसिले में रात को काका और माँ का संवाद हो रहा था ।

    दोनों के सामने एक ही समस्या थी । बापू ने एक हजार सैनिकों की माँग की तो उस सेना में काका और माँ शरीक होने को तैयार थे। लेकिन बाबला का क्या किया जाय ? एक विचार यह भी किया गया कि काका सेना में जायँ और माँ पीछे रहें; लेकिन वह विचार रद्द किया गया । अन्त में दोनों ने निर्णय लिया कि बापू ने यदि ऐसे सिपाहियों की माँग की तो दोनों अपने नाम देंगे । बाबला अब समझदार हो गया है । उसकी चिन्ता भगवान करेगा ।

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One response to “बापू की गोद में (१९) : आक्रमण का अहिंसक प्रतिकार

  1. पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव

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