भणसाळीकाका (२)

   तीसरा दृश्य मगनवाड़ी का । बारह वर्षों का मौन चल रहा था । लेकिन बापू ने बहस करके भगवान का नामोच्चारण करने की छूट उनसे मंजूर करायी । उनकी दोनों बगलों में काख – बिलाई के फोड़े एक के बाद एक हो रहे थे । देखनेवाला सहम जाता था । लेकिन भणसाळीकाका का चरखा चालू ही रहता था । तार खींचते समय काख से खून या पीप की पिचकारी छूटती थी । पिचकारी देखकर वे खिलखिलाकर हँसने लगते । हँसने से दुबारा खून की पिचकारी छूटती । एक बार इलाज के लिए बापू ने उनको सरकारी अस्पताल में भेजा । काख में से पीप निकालने के लिए सिविल सर्जन ने एक सलाइ खोंस दी । भणसाळीकाका ने उस समय भी जोर का ठहाका लगाया । सिविलसर्जन काका से कहने लगे , ‘ ऐसा मरीज जिन्दगी में मैंने नहीं देखा , और किसीने देखा हो तो मैं नहीं जानता ।’

    बापू और भणसाळीकाका के बीच चर्चा चलती । बापू बोलते जाते थे और भणसाळीकाका लिखते जाते थे । कुछ दिन बाद चर्चा के समय मौन छोड़ने का कबूल करवाया । कुछ दिनों के बाद हम लोगों के पढ़ानेभर के लिए मौन छोड़ने की बात भी कबूल करवायी ।

    मगनवाड़ी में कभी-कभी आधी रात में या भरी दोपहरी में भणसाळीकाका जोर से चिल्लाते , ‘ प्रभु,प्रभु,प्रभु,नारायण,नारायण । ‘ बादलों की गड़गड़ाहट के समान उनकी ध्वनि गम्भीर लगती थी । इन शब्दों के उच्चारण के समय उनको रोमांचित तथा गदगद होते हुए हमने देखा है ।मेरे काका मानते थे कि भणसाळीकाका को भगवत्दर्शन हुए हैं । भणसाळीकाका ने इससे इनकार नहीं किया था ।

    चौथा दृश्य सेवाग्राम । भणसाळीकाका मुझे पढ़ाने बैठे हैं । चरखा चल रहा है । बगल में गाजर से भरी टोकरी रखी है । दिनभर में गाजर से भरी पूरी टोकरी खा जाते हैं । कभी-कभी शिष्य को भी गुरु का प्रसाद मिल जाता है । गाजर के बदले कभी अमरूद होते हैं या दोनों न हों तो सेपरेट किये हुए दूध की एक बाल्टी भरी रहती है ।खाने की चीज कुछ भी हो भणसाळीकाका के भोजन की मात्रा में इससे कोई खास फरक नहीं पड़ता था । बीच में कुछ दिन खजूर चला । लेकिन खजूर खाने से भूत दिखाइ देते हैं , ऐसी उनकी शिकायत थी। इसलिए खजूर बन्द कर दिया ।फिर लहसुन शुरु हुआ । लहसुन की एक-दो कलियाँ नहीं,बल्कि अच्छी-खासी दो-तीन सौ कलियाँ रखी रहती थीं और मुट्ठीभर एक साथ मुँह में डालकर खाते । इस प्रयोग से ऐसे बीमार पड़े कि मरते-मरते बचे । उन दिनों सरदार सेवाग्राम आये हुए थे । पूछा,’क्यों भणसाळी,क्या जाने की तैयारी कर रहे थे ?’ जवाब मिला, ‘उसकी कला अकल है ।’ सरदार ने हँसकर कहा ,’कभी उसके (भगवान के) साथ बातचीत करने का मौका आ जाय , तो हमारा राम-राम पहुँचा देना । ‘

    इस दृश्य की अब दूसरी बाजू । एक टाँके में छाती तक के पानी में भणसाळीकाका बैठे हैं। सिर पर तीस सेर वजन का पत्थर रखा हुआ है ।

    ‘ यह कौन-सा प्रयोग है ?’

    ‘कुछ नहीं। ध्यान की दृष्टि से ठंडक की आवश्यकता महसूस हुई।सोचा था कि पाँव में रस्सी बाँधकर कुएँ में उलटे सिर लटका जाय । चिमनलालजी ( आश्रम-व्यवस्थापक ) ने कहा कि बापू की इजाजत लो । बापू को चिट्ठी लिखी।उन्होंने इजाजत नहीं दी।मैंने फिर से लिखा कि कम-से-कम टाँके में बैठने की तो छूट दे दो।वह उन्होंने दी ।’

    ‘ लेकिन यह सिर पर पत्थर किसलिए ?’

    ‘पहले दिन टाँके में बैठा था तो जानवर पानी पीने आये।उनकी सींग शरीर में लगने के भय से कहीं गलती से शरीर उछल न जाय , इसलिए सिर पर वजन रखा है।’

    एबटाबाद से आने पर बापू ने उनका यह प्रयोग तुरंत बन्द करवा दिया । मन में चाहे जितनी जिद हो,फिर भी बापू ने मना कर दिया तो भणसाळीकाका उनके साथ बहस नहीं करते थे ।

    एक बार आश्रम में हममें से कइयों को पागल लोमड़ी ने काट लिया । भणसाळीकाका को उसने तीन बार काटा । लेकिन उन्होंने किसीसे से जिक्र नहीं किया। वह तो तब पता चला, जब उनके हाथों पर घाव दिखाई दिये ।सूई लगाने से इनकार करते थे । लेकिन बापू की आज्ञा हुई तो मान गये।फिर वर्धा तक मोटर में जाने से इनकार करने लगे।फिर से बापू की आज्ञा हुई तो चुपचाप चले गये।

    लेकिन बापू के साथ भी एक बार उनका मतभेद होने की घटना मैंने देखी है । आश्रम की किसी बहन की एक छोटी-सी भूल के कारण बापू ने उसे आश्रम छोड़कर जाने को कहा था । वह बहन विधवा थी। उसने भणसाळीकाका को बताया । भणसाळीकाका को लगा कि इसमें बापू के हाथ से अन्याय हो रहा है ।उन्होंने बापू से कहा , ‘तो मैं भी आश्रम छोड़कर चला।’ अन्त में बापू मान गये ।

    समाज के दुर्बल और पीड़ित वर्ग के प्रति भणसाळीकाका का हृदय बहुत संवेदनशील था । गरीबों के साथ अन्याय होता देखकर कई बार वे क्षुब्ध हो जाते थे । स्वराज्य के बाद तेलंगाना में कम्युनिस्ट लोगों ने आतंक फैलाया था। उसके कारण सरकार ने बड़े पैमाने पर कम्युनिस्टों की धरपकड़ की थी । उस समय भणसाळीकाका ने सरकार को पत्र लिखा कि ‘मुझे भी पकड़ लो। मैं अहिंसा में विश्वास रखनेवाला एक साम्यवादी हूँ ।

    आष्टी-चिमूर में स्त्रियों पर पुलिस ने अत्याचार किया था। उसकी करुण कहानी सुनकर भणसाळीकाका का पुण्यप्रकोप हुआ और उसके विरोध में उन्होंने अनशन किया ।भारत के इतिहास में इस अनशन की एक अमर कहानी बन गई है । इस अनशन के दरमियान भणसाळीकाका ने शुरु के पन्द्रह दिन पदयात्रा की थी और पानी पीना भी छोड़ दिया था।आखिर के ४८ दिन वे बिस्तर पे थे । अनशन का एक-एक दिन बढ़ रहा था ।सन १९४२ के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में सरकार ने जनता को बेरहमी से कुचलकर मूर्छित-सा कर दिया था,लेकिन इस अनशन ने उस जनता में एक चेतना पैदा की ।रेल की पटरी उखाड़ने,तार काटने,डाक के डिब्बे जलाने के कार्यक्रमों का जवाब सरकार के पास था। लेकिन एक विशुद्ध नैतिक प्रश्न को लेकर एक सन्त ने अनशन का जो अमोघ अस्त्र उठाया था,उसका जवाब निष्ठुर सरकार के पास कुछ भी नहीं था । अन्त में सरकार ने इस अत्याचार की जाँच करना स्वीकार किया । इस तरह भारत के नारीत्व की मर्यादा का रक्षण हुआ ।

    आज भणसाळीकाका का शरीर गलितगात्र हो गया है । लेकिन वे नागपुर के नजदीक टाकली गाँव में रहकर ग्रामसेवा का अखण्ड व्रत का पालन कर रहे हैं। सेवाग्राम – आश्रम को यदि प्राणि-संग्रह कहा जाय तो भणसाळीकाका उसमें अनिर्बन्ध संचार करनेवाले सिंह-जैसे थे।.

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1 टिप्पणी

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One response to “भणसाळीकाका (२)

  1. पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव

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