गत प्रविष्टी से जारी : लेकिन बापू की लालचभरी निगाह तो दूसरी ही तरफ़ लगी रहती थी । हर स्टेशन पर बिना भूले वे ‘हरिजन फण्ड’ के लिए पैसा इकट्ठा करते थे। यह क्रम १९३४ से उनकी ‘हरिजन यात्रा’ से शुरु हुआ और ठीक अन्त तक जारी रहा । खिड़की में से बापू हाथ बाहर निकालकर पैसा माँगते थे। उनकी हथेली देखते-देखते पैसों से भर जाती। हम लोग भी हाथ या रुमाल लोगों के सामने फैलाते थे । मैं यह नहीं समझ पाता था कि लोग बापू के सिवा दूसरों के हाथ में क्यों पैसा देते थे । लेकिन देखा कि हम सबके हाथ पैसों से भर जाते थे । कभी-कभी तो एक स्टेशन पर जमा हुए फुटकर पैसों को गिनते-गिनते आगे का स्टेशन आ जाता था।
मेरे मन में कई बार प्रश्न उठता था कि क्या ये लोग ‘बापू किस लिए पैसे माँग रहे हैं’ यह समझते भी होंगे ? क्या घर जा कर यह लोग छुआछूत छोड़ देने वाले हैं ? इस तरह पैसे इकट्ठा करने से हरिजनों का क्या उद्धार होने वाला है? लेकिन मैं देखता था कि पैसे देने वालों की आँखों में श्रद्धा भरी होती थी । ये लोग महात्मा के दर्शन के लिए आते थे और साथ-साथ कुछ दक्षिणा दे जाते थे। ‘हरिजन -फण्ड’ शब्द तो वे जरूर सुनते होंगे । कुछ लोग उस शब्द का अर्थ भी समझते होंगे । लेकिन श्रद्धापूर्वक दर्शन के लिए आने वाली यह भीड़ एक बात जरूर समझती थी, ऐसा मुझे लगा । चाहे जितना व्यस्त रहने पर भी बापू देश के दरिद्रनारायण को नहीं भूलते हैं,इतना वे लोग जानते थे । कभी-कभी ऐसा भी होता था कि बापू कुछ लिख रहे हैं और इतने में स्टेशन आ गया , तो इधर लिखने का काम जारी रखते हुए बापू एक हाथ खिड़की के बाहर निकाल देते । ऐसे मौके पर वे माँगते भी नहीं थे, फिर भी हाथ में टपाटप पैसे आ गिरते थे । भारत की जनता मानो साक्षात दरिद्रनारायण की पूजा ही करती थी । गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी दरिद्रनारायण के इस प्रतिनिधि को देखकर उस समय ‘दानवीर’ बन जाता था । सैंकड़ों वर्षों की गुलामी, दरिद्रता और अज्ञान होते हुए भी भारत की प्रजा में अब भी अगर कुछ खमीर बचा हुआ है तो वह उसकी इस श्रद्धा के कारण ही है ।
यह श्रद्धा वैसे तो सारे प्रदेशों में है ,लेकिन खास करके बिहार और आन्ध्र में वह मूर्तिमन्त हो जाती थी । आन्ध्र प्रदेश के स्टेशनों पर दर्शनार्थियों की भीड़ में हिन्दी का शब्द जानने वाला शायद ही कोई होगा । लेकिन उस जनता को दर्शन से ही परम तृप्ति का अनुभव होता था।
हाँ, बिहार की जनता जरूर हिन्दी समझती है । लेकिन लाखों की उस भीड़ में गांधीजी के मुँह से निकलनेवाले शब्द उसके कानों तक थोड़े ही पहुँच सकते थे। फिर भी दूर-दूर के देहातों से कई दिन पैदल चलते हुए लोग बापू की ट्रेन जिस रास्ते से जाती होगी , उस रास्ते के रेलवे -स्टेशन पर पहुँच जाते थे । साथ में ‘सत्तू’ की पोटली बाँधकर लाते थे। भूख लगने पर सत्तू फाँक लेते थे और ‘गांधीजी बबुआ जीवो हो राम’ गाते हुए वापस जाते ।
बिहार की भीड़ से परेशान हो कर कभी – कभी काका कह बैठते थे ,’ यह सब तुलसीदासजी की करामात है। उन्होंने रामायण में राम-दर्शन के लिए आने वाली भीड़ के स्तुतिस्तोत्र गा-गाकर लोगों को इस प्रकार पागल बना दिया है ।’ मैं हँसते हुए कहता था ,’काका, इस जमाने में तुलसीदास का यह काम तो आप ही कर रहे हैं,यह भूल जाते हो !’
डिब्बे में बैठे हुए लोग यह सुनकर खूब हँसने लगते । उनकी हँसी पूरी होते-होते अगला स्टेशन आ ही जाता ।
चम्पारण जिले का एक प्रसंग मैं कभी नहीं भूलूँगा । उन दिनों अवध-ति्रहुत ट्रेन को देख कर काठियावाड़ी रियासतों की गाड़ी कई दरजे अच्छी थी, ऐसा कहना पड़ता है । रात में उस गाड़ी में कभी बत्ती जलती दिखाई दे, तो अपने को भाग्यवान समझो । रफ़्तार ऐसी कि उसके साथ आदमी भी पैदल दौड़ सके । कुछ युवकों का एक झुण्ड गाड़ी की मन्द गति का लाभ ले कर उसके साथ दौड़ रहा था । कुछ लोग गाड़ी की छत पर चढ़ कर जयघोष के नारे लगाते थे और नीचे से दौड़ने वाले उसको दोहराते थे । बीच – बीच में कुछ लोग जंजीर खींच कर गाड़ी रोक लेते थे । एक जगह गाड़ी बहुत देर तक खड़ी रही तो काका नीचे उतर कर देखने गए । उन्होंने खबर दी कि गाड़ी के साथ दौड़ने वाले एक युवक को पीछे से किसीका धक्का लगा और वह पटरी पर गिरा। दूसरे लोगों ने उसे खींच लिया,फिर भी ट्रेन का एक चक्का उसके पैर पर से निकल गया । गार्ड के डिब्बे में उसे रखा गया । मुजफ़्फ़रपुर के अस्पताल में उसे ले जा रहे थे । काका ने कहा,’मैं उससे मिलकर आया हूँ । दोनों पाँव पर से गाड़ी का पहिया जाने के कारण घुटने तक के पाँव करीब -करीब कट गए हैं । उसके बचने की उम्मीद नहीं है । खून बहुत गया है । फिर भी लड़का होश में था । मैंने उसके सामने उस दुर्घटना के लिए अफ़सोस प्रकट किया तो लड़का कहने लगा,’ उसमें अफ़सोस करने की क्या बात है? गांधीजी की गाड़ी के नीचे मैं कुचला गया,यह तो मेरा अहोभाग्य ही कहना चाहिए ।’
काका की आँखें डबडबा गईं थीं । उन्होंने कहा, ‘ क्या उसके जितनी भक्ति हममें होगी ?’ [ अगला प्रसंग-‘मोहन और महादेव’]