सुनाऊं तुम्हे बात एक रात की,
कि वो रात अन्धेरी थी बरसात की,
चमकने से जुगनु के था इक समा,
हवा में उडें जैसे चिनगारियां.
पडी एक बच्चे की उस पर नज़र ,
पकड़ ही लिया एक को दौड़ कर.
चमकदार कीडा जो भाया उसे ,
तो टोपी में झटपट छुपाया उसे.
तो ग़मग़ीन कैदी ने की इल्तेज़ा ,
‘ओ नन्हे शिकारी ,मुझे कर रिहा.
ख़ुदा के लिए छोड़ दे ,छोड़ दे ,
मेरे कैद के जाल को तोड दे .
-“करूंगा न आज़ाद उस वक्त तक ,
कि देखूं न दिन में तेरी मैं चमक .”
-“चमक मेरी दिन में न पाओगे तुम ,
उजाले में वो तो हो जाएगी गुम.
न अल्हडपने से बनो पायमाल –
समझ कर चलो- आदमी की सी चाल”.
-अल्लामा इक़बाल.
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मजा आ गया। बेहतरीन
आज 10/10/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत सुंदर
जीवंत भावनाएं.सुन्दर चित्रांकन,बहुत खूब
बेह्तरीन अभिव्यक्ति
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति….http://pankajkrsah.blogspot.com पर भी पधारें स्वागत है
सुन्दर भावनाएं
सादर
पिंगबैक: दोनों मूरख , दोनों अक्खड़ / भवानीप्रसाद मिश्र | शैशव